आए। मित्रावरुण है, यह जान सूर्यवंशियों ने उसे पुरोहित बना लिया है, परन्तु मैं तो देवेन्द्र की चर्चा कर रहा हूं। " ____ “वह तो देवाधिदेव की स्तुति करता अघाता नहीं है। " ___ “ तो इससे क्या मैं उसके पातकों पर दृष्टि नहीं दूंगा ? विष्णु ही को लो , वह दासों का मित्र था , पर जब इन्द्र ने दासों के नेता वृत्र पर पंचसिन्धु में आक्रमण कर उनके दोनों अवध्य नगर , हरिपायु और महेन्द्रद्वार ध्वस्त किए , तब विष्णु ने क्या दासों की मदद की ? वह देखता रहा। सो केवल इसी इन्द्र के कहने से । उसने स्पष्ट कह दिया - वृत्रमिन्द्रो हनिष्यत्सखेविष्णो वितरं विक्रमस्व। उस समय इलावर्त और सुषा प्रान्तों में आदित्यों का प्राबल्य होने से विष्णु की ही चलती थी । दासों का पराभव कर , उनकी उच्च संस्कृति का विध्वंस कर , उनसे चालीस वर्ष तक संग्राम कर , इस पतित चोर ने जब उनका ध्वंस किया और अपने परम हितैषी वज्रनिर्माता त्वष्ट्रा के पुत्र त्रिशीर्ष विश्वरूप को विश्वासघात करके मार डाला , तब उस ब्रह्मा का किसी ने क्या कर लिया ? उल्टे त्रसदस्यु , पुरुकुत्स ने सहायता देकर इन्द्र का सार्वभौम राज्य स्थापित करा दिया । यदि मैं महातेज बाण को सहायता नहीं देता , तो दैत्यों का तो वंश ही नष्ट हो जाता। " “ सो देव - सान्निध्य में महातेज बाण सम्पन्न तो है! " “ इसी प्रकार रावण भी सम्पन्न रहे। अब ये ही तो दो समर्थ वंश रह गए, जो प्राचीन नृवंशों का प्रतिनिधित्व करते हैं । इसी से मैं उन पर सदय हूं । रावण जो आर्य- अनार्य का भेद मिटाकर समूचे नृवंश की एक वैदिक संस्कृति स्थापित करना चाहता है, सो बुरा क्या है ? पृथ्वी के स्वामी ये आदित्य ही रहेंगे? दैत्य -दानवों का , नागों का , प्राचीन वंश ही नष्ट हो जाएगा ? मैं कदापि ऐसा न होने दूंगा । आदित्यों ने इलावर्त में देवलोक स्थापित कर लिया और भारतवर्ष में आर्यावर्त । अब वे समूचे भारतवर्ष ही को आर्यावर्त बनाना चाहते हैं । जानती हो , अगस्त्य ने दण्डकारण्य में उपनिवेश स्थापित किया है। आर्यावर्त के बहिष्कृत आर्य वहां आ - आकर उसे सम्पन्न कर रहे हैं । " “ तो देव , इसमें हानि क्या है ? आर्यों की संस्कृति व्यवस्थित है , मर्यादित है। " “ पर वही वैदिक संस्कृति नहीं कही जा सकती । वेद की ऋचाएं केवल आर्यों ही ने नहीं रची हैं । उसमें दासों और एलों का भी उतना ही भाग है, जितना आर्यों का । इन्द्र ने दासों पर आधिपत्य जमाकर उनकी महिदेव की परम्परा भंग कर दी । दासों के राज्य में शासन और यजन महिदेव करते थे। इन्द्र ने इस व्यवस्था को भंग कर दिया । यतियों ने उसका विरोध किया तो उन्हें मरवाकर उनका मांस कुत्तों को खिला दिया और सर्वत्र अपनी पूजा प्रचलित की । " “ परन्तु राक्षसों की संस्कृति में तो नरमांस -भक्षण का प्रचलन है! " “ यज्ञ - बलि का प्रचलन तो इसी इन्द्र ने दास -पराभव के बाद किया था । नर - बलि का भी दायित्व उसी पर है। रावण ने तो बाह्य परम्पराओं को सम्मिलित कर सबका समन्वय किया है । उसने कोई नई परम्परा तो नहीं स्थापित की ! ” । “ आप देवाधिदेव हैं । देव - दैत्यपूजित हैं , फिर आप देवराट पर सदय क्यों नहीं हैं ? देवों का हित - अहित क्यों नहीं विचारते हैं ? " “मैं तो सभी पर सम - भाव रखता हूं। कहो, क्या देवेन्द्र की भांति रावण ने अथवा
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