उपसंहार चौरासी दिन तक लंका का घोर संग्राम होता रहा । अन्त में पुत्र - परिजन - सहित राक्षसपति रावण मारा गया । राम जयी हुए। युद्ध फाल्गुन मास में आरम्भ हुआ और रावण का वध वैशाख कृष्ण चतुर्दशी या अमावस को हुआ । रावण के मरने पर राम ने विभीषण को लंका तथा राक्षसों का स्वामी बना दिया । परन्तु विभीषण और उसके सहयोगी लंकावासियों ने राक्षस - धर्म त्याग , आर्य -मार्ग ग्रहण किया। जो इससे सहमत नहीं हुए उन्होंने लंका त्याग दी । कुल मिलाकर तेरह मास सीता लंका में रहीं । अब सीता को संग लेकर राम पुष्पक विमान में बैठ दलबल- सहित किष्किन्धा में लौटे । वहां कुछ दिन सुग्रीव का आतिथ्य ग्रहण कर दण्डक वन में पहुंचे, जहां अगस्त्य -प्रमुख सभी ऋषियों- तापसियों ने राम की अभ्यर्थना की । विभीषण, सुग्रीव , हनुमान् आदि प्रमुख जन अब भी राम के साथ थे। उधर भरत ने चौदह वर्ष की वनवास - अवधि पूर्ण हुई जान सुमन्त सचिव को परिकर ले राम को अभ्यर्थना - सहित अयोध्या ले आने को दण्डकारण्य भेजा था । वहां जाकर सुमंत को पता चला कि अज्ञात चोर ने रघु - वध सीता को चुरा लिया है और राम लक्ष्मण उन्हीं को वन - वन खोजते किष्किन्धा की ओर गए हैं । तब सुमन्त ने किष्किन्धा को दूत भेजा । उसने लौटकर कहा कि लंकापति रावण ने सीता का बलात् हरण किया है और राम की सहायतार्थ सब वानर - कटक लेकर सुग्रीव ने लंका पर अभियान किया है । यह सूचना पाते ही कोसल के धीर - वीर वृद्ध मन्त्री आंसू बहाते तीव्र गति से अयोध्या लौटे । अयोध्या में आकर उन्होंने सीताहरण का दारुण समाचार भरत को सुनाया , जिसे सुनकर अयोध्या के राजमहल हाहाकार से भर गए । अयोध्या शोक - सागर में डूब गई। भरत को यह देखकर बड़ी ग्लानि हुई कि आर्य राम ने इस विपत्काल में मुझे सूचना नहीं दी । वे रघुवंशियों की चतुरंग चमू लेकर , द्रुतगति से कूच पर कूच करते दक्षिणापथ पर चल दिए। परन्तु वे दण्डकारण्य तक तब पहुंच पाए जबकि राम लंका को विजय कर वहां पहुंच चुके थे। भरत को चतुरंग चमू - सहित आया सुन रामभद्र ने अगस्त्य -प्रमुख सब ऋषियों , वानरों और राक्षसेन्द्र विभीषण - सहित आगे बढ़ भरत का अभिनन्दन किया । सब भाई प्रेमाश्रु गिराते मिले । चिर वियोग के दारुण दु: ख का अन्त हुआ । वैदेही सहित राम - लक्ष्मण ने माताओं और गुरुजनों की पदवन्दना की । माताओं ने दोनों पुत्रों को प्रेमाश्र् गिराते हृदय से लगाया । सीता को प्यार से आशीर्वचन कहे । अब राम , वशिष्ठ, वामदेव , इन्द्र, अगस्त्य , विभीषण , सुग्रीव, सुतीक्ष्ण आदि नरपति वरिष्ठों और नृवंश के नेताओं की सभा दण्डकारण्य में जुड़ी । उत्तरापथ आर्यावर्त और दक्षिणावर्त के सब प्रतिनिधि नेता, देवलोक और मृत्युलोक के प्रतिनिधि , दक्षिण के द्वीपसमूहों के अधिपति , नागकुलपति दण्डकारण्य में आकर इस महती सभा में बैठे । पृथ्वी
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