पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४८

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" नहीं, मैं आगत पुरुष हूं ? " " यक्ष है ? " " नहीं, रक्ष हूं । " " कहां का ? " “ आन्ध्रालय का । " “ आह , वह तो धनेश दिक्पाल के मातृकुल का प्रदेश है ! " “ मैं धनेश दिक्पाल के मातृकुल का पुरुष हूं। " " तो तेरा स्वागत है ! मातृकुल से तेरा क्या सम्बन्ध है ? " “ मैं धनेश दिक्पाल का मातुल हूं । " " अहा, मातुल ! ” वह पुरुष अट्टहास करके हंस दिया । “ एहि एहि , अपने जन्म से किस कुल को धन्य किया , मातुल ? ” । “मैं दैत्यपति सुमाली का पुत्र हूं, और धनेश दिक्पाल की विमाता कैकसी का अनुज । ” " अभिवादन करता हूं , अभिनन्दन करता हूं ! किन्तु क्या कहकर आपको पुकारूं ? " " मेरा नाम प्रहस्त है, मैं धनेश दिक्पाल के अनुज रक्षपति रावण का अमात्य हूं । रक्षपति रावण का संदेश लेकर ही मैं धनेश दिक्पाल के चरणों में उपस्थित हुआ हूं। " __ “ स्वस्ति . यक्षपति दिक्पाल अभी सोमरस पान करने नन्दन वन गए हैं । अब उनके आने का समय हो रहा है। महापराक्रमी दिक्पाल धनेश के आते ही मैं उनसे आपका शुभागमन निवेदन करता हूं । तब तक आप यहां रत्नपीठ पर बैठकर विश्राम कीजिए या यथेच्छ महालय में विचरण कीजिए। शुक्र , सारिका, चक्रवाक , कोकिल आदि विहंगों में मन बहलाइए । " प्रहस्त उस पुरुष के वचन से आश्वस्त हो , चारों ओर घूम -फिरकर उस सौध को देखने और मन में यह सोचने लगा - यह सारी ही सम्पदा मेरे पिता की है, अत : मैं ही इसका वास्तविक स्वामी हूं। परन्तु कालविपाक से यह धनेश कुबेर इसका अधिपति बना है और मैं अपरिचित अतिथि की भांति यहां उपस्थित हं । " प्रहस्त अभी इन बातों पर विचार कर ही रहा था कि उसने देखा एक मणिकांचननिर्मित रथ पर चन्द्रमा के समान एक कान्तिमय पुरुष सिर पर किरीट , कानों में कुण्डल और कमर में मेखला धारण किए, अनेक दिव्यांगनाओं अप्सराओं और गन्धर्यों से घिरा चला आ रहा है। अनेक किन्नर और गन्धर्व नृत्य करते और गाते चले आ रहे हैं । उस तेजस्वी पुरुष के तेज से ही जैसे वह स्थान आलोकित हो रहा था । रथ से उतरते ही द्वार - पुरुष ने आगे बढ़कर उस दिव्य पुरुष को अभिवादन कर कहा - "धर्मावतार, यह महात्मा प्रहस्त , दैत्य - पति सुमाली का पुत्र , आपकी विमाता कैकसी का अनुज , और आपका प्रतिष्ठित मातुल यहां उपस्थित है। यह आपके अनुज आयुष्मान् रावण का संदेश लेकर देव के सम्मुख आया है । आगे देव प्रमाण हैं । ” द्वारपुरुष के इतना कहते ही , लोकपाल दिक्पति कुबेर दोनों भुजा पसारकर अपने स्वर्णतारों से झिलमिल उत्तरीय को तथा कुंचित घन - सघन कृष्ण काकपक्ष को सुरभित हवा में फहराता हुआ हंसकर बोला - “ आओ मातुल , इस स्वर्ण लंका में आपका स्वागत है !