पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४९

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कहिए, मेरे पितृचरण तो कुशल से हैं ? और मेरा प्रिय भाई रावण प्रसन्न है न ? मेरे सब सम्बन्धी , मित्र बन्धु सुखपूर्वक हैं न ? " प्रहस्त ने हाथ जोड़कर विनय की - “ धनेश दिक्पाल कुबेर , आपकी कृपा से सब कुशल हैं । मैं आपकी सेवा में आपके प्रिय अनुज रावण का सन्देश लेकर आया हूं । ” । ___ “ अहा , रावण , वह मेरा वीर भाई प्राणों से भी अधिक प्रिय है । कहो मैं उस प्रियदर्शी रावण का क्या प्रिय करूं ? मेरे प्रिय अनुज की क्या अभिलाषा है जिसे मैं पूर्ण करूं ? प्रहस्त ने कहा - “ देव धनपति , अपने अग्रज के चरणों में अनुगत रावण ने अनेक बार अभिवादन करने के बाद मुझे देव - चरण में यह विनीत निवेदन करने के लिए भेजा है कि लंकापुरी और लंका साम्राज्य हम दैत्यों का है। इसलिए इसे आप हमें लौटा दें तो ठीक है । यह एक धर्म की बात है। इसमें हमारा - आपका प्रेम भी बना रहेगा। " प्रहस्त की बात सुनकर धनेश कुछ क्षण चुप रहा। फिर उसने धीरे- से कहा - “मातुल , रावण दशग्रीव के शौर्य का बखान हम सुनते रहते हैं । उस आयुष्मान् ने हमारे आस-पास के सभी द्वीप जय कर लिए हैं । यह ठीक है कि पहले यह लंकापुरी आपके पिता दैत्यराज सुमाली की थी । परन्तु जिस समय मेरे पिता ने निवास के लिए यह लंकापुरी मुझे दी थी , उस समय यह सूनी थी । यहां कोई राजा नहीं था । मैंने ही इसे फिर बसाकर धन - जन से सम्पन्न किया है । यद्यपि तुम्हारे - हमारे आचार में अन्तर है, तुम रक्ष संस्कृति के प्रतिष्ठाता हो और मैं यक्ष- संस्कृति का । परन्तु इससे क्या ? हम सब दायाद बान्धव तो हैं ही तथा इस लंकापुरी में इस समय देव , दैत्य , किन्नर , असुर , नाग सभी जाति के जन रहते हैं । सबका समान ही अधिकार है। इससे तुम मेरे अनुज रावण से कहो कि इस मेरी बसाई हुई लंका में वह भी आकर सुख से रहे । बाधा कुछ नहीं है । लंका जैसी मेरी है वैसी उसकी भी है, क्योंकि अभी पिता ने रावण के साथ हमारा कोई बंटवारा नहीं किया है, अभी तक हमारे पिता का सारा धन और राज्य बिना बंटा हुआ ही है। " । धनपति कुबेर के ये सारगर्भित और युक्तियुक्त वचन सुनकर प्रहस्त के मुख से बोल नहीं निकला । वह नीची गर्दन किए कुछ सोचता रह गया । कुबेर ने प्रहस्त का खूब आत्मीयता से सत्कार किया और सब भांति पूजित कर उसे विदा किया ।