12. लघु अभियान दैत्यों का वह छोटा - सा दल निःशब्द, नीरव , समद्र - तट से तनिक हटकर घाटी में टेढ़े-तिरछे मार्ग से तीव्र गति से नगर की ओर बढ़ रहा था । दल के आगे रावण कन्धे पर भीमकाय परशु रखे चल रहा था । उसके पीछे वृद्ध व्याघ्र दैत्य सेनापति सुमाली था । दैत्य दल की ये काली - काली छायाएँ चतुर्थी की चन्द्र -ज्योति में हिलती हुई - सी विचित्र प्रतीत हो रही थी । दैत्यों के इस दल को विकट निर्जन तथा ऊबड़ - खाबड़ मार्ग में चलने से कुछ भी कष्ट नहीं हो रहा था । दल का प्रत्येक भट विजय के विश्वास से ओत -प्रोत था । सुमाली ने आगे बढ़कर रावण के कन्धे पर हाथ रखा । रावण ने तनिक कान पीछे झुकाकर कहा - “ कुछ और आदेश है, मातामह ? " “ नहीं पुत्र , सब पूर्व-नियोजित है। किन्तु तेरे भट यथासमय उपस्थित मिलेंगे न ? ऐसा न हो कि वे सब उत्सव के हुड़दंग में मद्यपान कर मत्त हो जाएं । " “ ऐसा न होगा , मातामह! उनका नेतृत्व मातुल अकम्पन कर रहे हैं । " " तब ठीक है , हमारे मद्य - भाण्ड भी नागराज को समय पर मिल जाएंगे। परन्तु पुत्र , ठीक क्षण आने तक धैर्य रखना। इन नागों को मैं भली- भांति जानता हूं । विष और मद्य इन्हें अभिभूत नहीं करते । ये दिव्यौषधि सेवन करते हैं तथा सोमपान करते हैं । इसी से एक प्रकार से वे सब मृत्युंजय हैं । " ___ “चिन्ता न कीजिए, मातामह, रावण का यह परशु किसी मृत्युंजय की आन नहीं मानता और फिर हमें उनके प्राण लेने से क्या प्रयोजन है! हम तो द्वीप पर अधिकार चाहते हैं । यदि नाग हमारी रक्ष - संस्कृति को स्वीकार कर लें , तो हमारी ओर से वे ही द्वीप पर शासन करें । " “ यह पीछे देखा जाएगा , पुत्र - पहले युद्ध , पीछे राजनीति । यह देखो, सामने ही पुर है । आशा करता हूं नगर - द्वार पर हमें अपने भट मिल जाएंगे । " " द्वार के निकट ही हमारे भट छिपे हुए हैं । " " तो अब हमें सावधान रहना चाहिए। " " आप केवल दल का पृष्ठभाग संभालिए। मैं सब निबट लूंगा । नगर में हमारे मित्र बहुत हैं । राजसभा में भी हमारे मित्र हैं । सब दैत्य , असुर, दानव और राक्षस तो अपने मित्र हैं ही । यक्ष, देव और गन्धर्व भी विरोध न करेंगे। फिर नर , नाग ही रहे । सो उनका बल ही क्या है ! " "ठीक है, पर पुत्र, शत्रु को कभी लघु न गिनना, सावधान रहना ! " उत्तर में रावण ने वृद्ध नाना का हाथ कसकर पकड़ तनिक मुस्करा दिया । दैत्य आश्वस्त हो गया । कुछ ठहरकर रावण ने हंसकर कहा - “मातामह, आप तो नागपति के पिता के मित्र
पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/५०
दिखावट