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पृष्ठ:वरदान.djvu/१०६

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कमला के नाम विरजन के पत्र
 

दो, मैं रूष्ट न होऊॅगी।

माधवी―तुलसा के घर तो चली गयी थी।

'मैं―तुलसा तो यहाँ बैठी है, वहाॅ अकेली क्या सोती रहीं?

तुलसा―(हँसकर) सोती काहे को जागती रहीं। भोजन बनाती रही, बरतन चौका करती रहीं।

माधवी―हॉ, चौका-बरतन करती रही। कोई तुम्हारा नौकर लगा हुआ है न!

ज्ञात हुआ कि जब मैने महाराज को राधा को छुड़ाने के लिए भेजा था, तब से माधवी तुलसा के घर भोजन बनाने में लीन रही। उसके 'किवाड़ खोले। यहाॅ से आटा, घी, शक्कर सब ले गयी। आग जलायी और पूड़ियाॅ, कचौड़ियाॅ, गुलगुले और मीठे समोसे सब बनाये। उसने सोचा था कि मै यह सब बनाकर चुपके से चली जाऊँगी। जब राधा और तुलसा जायेंगे, तो विस्मित होंगे कि कौन बना गया! पर स्यात् विलम्ब अधिक हो गया और अपराधी पकड़ लिया गया। देखा, कैसी सुशीला वाला है!

अब विदा होती हूॅ। अपराध क्षमा करना। तुम्हारी चेरी हूॅ। जैसे रखोगे वैसे रहूगी। यह अबीर और गुलाल भेजती हूॅ। यह तुम्हारी दासो का उपहार है । तुम्हें हमारी शपथ, मिथ्या सभ्यता के उमङ्ग में आकर इसे 'फेक न देना, नहीं तो मेरा हृदय दुखी होगा।

तुम्हारी,
 
विरजन
 

( ५ )

प्यारे
मझगाॅव
 

तुम्हारे पत्र ने बहुत रुलाया। अब नहीं रहा जाता! मुझे बुला लो। एक बार देखकर चली आऊँगी। सच बताओ, यदि मै तुम्हारे यहाॅ आ जाऊं, तो हँसी तो न उड़ाओगे? न-जाने मन में क्या समझोगे? पर कैसे आऊँ? तुम लालाजी को लिखो, खूब! वे कहेगे यह नयी धुन समायी है।