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पृष्ठ:वरदान.djvu/१०७

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वरदान
१०६
 

कल चारपाई पर पड़ी थी, भोर हो गया था, शीतल मन्द पवन चल रहा था कि स्त्रियों के गाने का शब्द सुनायी पड़ा। स्त्रियाॅ अनाज का खेत काटने जा रही थीं। झाँककर देखा तो दस-दस बारह-बारह स्त्रियों का एक-एक गोल था। सबके हाथों में हँसिया, कन्धों पर गठियाॅ बाँधने की रस्सी और सिर पर भुने हुये मटर को छबड़ी थी। ये इस समय जातो है, कहीं बारह बजे लौटेंगो। आपस में गाती, चुहुलें करती चली जाती थीं।

दोपहर तक बड़ी कुशलता रही। अचानक आकाश मेघाच्छन्न हो गया। ऑधी आ गयी और ओले गिरने लगे। मैने इतने बड़े ओले गिरते न देखे थे। बालू से बड़े और ऐसी तेजी से गिरे जैसे बन्दूक से गोली। क्षण-भर में पृथ्वी पर एक फुट ऊॅचा विछावन बिछ गया। चारों तरफ से कृपक मागने लगे। गायें, बकरियाँ, भेड़े सब चिल्लाती हुई पेड़ों की छाया ढूढती फिरती थीं। मैं डरी कि न-जाने तुलसा पर क्या बीती। ऑख फैला-कर देखा तो खुले मैदान में तुलसा, राधा और मोहनी गाय दीख पड़ीं। तीनों घमासान ओले की मार मे पड़े थे। तुलसा के सिरपर एक छोटी सी टोकरी थी और राधा के सिर पर एक बड़ा-सा गट्ठा। मेरे नेत्रों में ऑसू भर आये कि न-जाने इन वेचारों की क्या गति होगी। अकस्मात् एक प्रखर झोंके ने राधा के सिर से गट्ठा गिरा दिया। गट्ठा का गिरना था कि चट तुलसा ने अपनी टोकरी उसके सिर पर औधी दी। न-जाने उस पुष्प ऐसे सिर पर कितने ओले पड़े। उसके हाथ कभी पीठ पर जाते, कभी सिर सुहलाते। अभी एक सेकेण्ड से अधिक यह दशा न रही होगी कि राधा ने बिजली की भाॅति लपककर गट्ठा उठा लिया और टोकरी तुलसा को दे दो। कैसा घना प्रेम है।

अनर्थकारी दुर्दैव ने सारा खेल बिगाड़ दिया। प्रात काल स्त्रियाँ गाती हुई जा रही थीं। सन्ध्या को घर-घर शोक छाया हुआ था। कितनो के सिर लहू-लुहान हो गये, कितने हल्दी पी रहे है। खेती सत्यानाश हो गयी। अनाज वर्फ क तले दब गया। घर का प्रकोप है। सारा गाँव