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प्रतापचन्द्र और कमलाचरण
 

सरयूदेवी के हाव-भाव को मतवाली दृष्टि से देख रहा था। उसे उस समय सरयूदेवी वृजरानी से किसी प्रकार कम सुन्दरी नहीं दीख पड़ती थी। वर्ण में तनिक सा अन्तर था, पर यह ऐसा कोई बड़ा अन्तर नहीं। उसे सरयू- देवी का प्रेम सच्चा और उत्साहपूर्ण जान पड़ता था, क्योंकि वह जब कभी बनारस जाने की चर्चा करता, तो सरयूदेवी फूट-फूटकर रोने लगती और कहती कि मुझे भी लेते चलना। मैं तुम्हारा संग न छोडूॅगी। कहाँ यह प्रेम की तीव्रता व उत्साह का बाहुल्य और कहाॅ विरजन की उदासीन सेवा और निर्दयता-पूर्ण अभ्यर्थना?

कमला अभी भली-भाॅति ऑखो को सेंकने भी न पाया था कि अकस्मात् माली ने आकर द्वार खटखटाया। अब काटो तो शरीर में रुधिर नहीं। चेहरे का रंग उड़ गया। सरयूदेवी से गिड़गिड़ा कर बोला―‘मैं कहाँ जाऊँ?' सरयूदेवी का ज्ञान आप ही शून्य हो गया था, घबराहट में मुख से शब्द तक न निकला। इतने में माली ने फिर किवाड खटखटाया। वेचारी सरयूदेवी विवश थी। उसने डरते-डरते किवाड खोल दिया। कमलाचरण एक कोने मे श्वास रोककर खड़ा हो गया।

जिस प्रकार बलिदान का बकरा कटार के तले तड़पता है, उसी प्रकार कोने में खड़े हुए कमला का कलेजा धड़क रहा था। वह अपने जीवन से निराश था और ईश्वर को सच्चे हृदय से स्मरण कर रहा था और कह रहा था कि इस बार इस आपत्ति से मुक्त हो जाऊॅगा तो फिर कभी ऐसा काम न करूॅगा।

इतने में माली को दृष्टि उस पर पड़ो; पहिले तो घबराया, फिर निकट आकर बोला―‘यह कौन खड़ा है? यह कौन है?’

इतना सुनना था कि कमलाचरण झपटकर बाहर निकला ओर फाटक को ओर जो तोड़कर भागा। माली एक डंडा हाथ में लिए 'लेना-लेना, भागने न पाये!' कहता हुआ पीछे पीछे दौड़ा ।यह वही कमला है जो माली को पुरस्कार व पारित पिक दिया करता था, जिसे माली सरकार और