सबसे शुभ दिन है। आज मै अपने प्राणनाथ के सम्मुख खड़ी हूॅ और अपने कानों से उनकी अमृतमयी वाणी सुन रही हूॅ। स्वामीजी! मुझे आशा न थी कि इस जीवन में मुझे यह दिन देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा। यदि मेरे पास संसार का राज्य होता तो मैं दस आनन्द में उसे आपके चरणों में समर्पण कर देती। मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करती हूॅ कि मुझे अब इन चरणों से अलग न कीजियेगा। मै सन्यास ले लूँगी। और आपके सग रहूॅगी। मैं वैरागिनी बनूँगी, भभूति रमाऊँगी; परन्तु आपका संग न छोडूॅगी। प्राणनाथ! मैने बहुत दुख सहे है, अब यह जलन नहीं सही जाती।
यह कहते-कहते माधवी का कण्ठ रूॅध गया और आँखों से प्रेम की धारा बहने लगी। उससे वहीं न बैठा गया। उठकर प्रणाम किया और विरजन के पास आकर बैठ गयी। वृजरानी ने उसे गले लगा लिया और पूछा―क्या बातचीत हुई?
माधवी―जो तुम चाहती थी।
वृजरानी―सच, क्या बोले?
माधवी―यह न बतलाऊँगी।
वृजरानी को मानो पड़ा हुआ धन मिल गया। बोली―ईश्वर ने बहुत दिनों में मेरा मनोरय पूरा किया। मैं अपने यहाँ से विवाह करूँगी।
माधवी नैराश्य-भाव से मुसकरायी। विरजन ने कम्पित स्वर से कहा―हमको भूल तो न जायेगी? उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर वह स्वर सॅभालकर बोली―हमसे अब तू बिछुड़ जायेगी।
माधवी―मै तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।
विरजन―चल, बातें न बना!
माधवी―देख लेना।
विरचन―देखा है। जोड़ा कैसा पहनेगी?
माधवी―उज्ज्वल, जैसे बगुले का पर