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विदाई
 

हर्ष की देवी अपनी सखी-सहेलियों के संग टहल रही थी। वायु झूमती थी। दुख और विपाद का कहीं नाम न था। ठौर-ठौर पर बधा- इयाँ बज रही थीं। पुरुष सुहावने वस्त्र पहने इठलाते थे। स्त्रियाँ सोलहो श्रृंगार किये मंगल-गीत गाती थीं। बालक-मण्डली केसरिया साफा धारण किये कलोलें करती थीं। हर पुरुष-स्त्री के मुख से प्रसन्नता झलक रही थी, क्योंकि आज एक सच्चे जाति-हितैषी का शुभागमन है जिसने अपना सर्वस्व जाति के हित भेंट कर दिया है।

बालाजी जब अपने सुहदो के संग राजघाट की ओर चले तो सूर्य भगवान् ने पूर्व दिशा से निकलकर उनका स्वागत किया। उनका तेजस्वी मुखमण्डल ज्योंही लोगों ने देखा, सहस्रों मुखों से 'भारत की जय' का घोर शब्द सुनायी दिया और वायुमण्डल को चीरता हुआ आकाश-शिखर तक जा पहुँचा। घण्टा और शखों की ध्वनि निनादित हुई और उत्सव का सरस राग वायु में गूॅजने लगा। जिस प्रकार दीपक को देखते ही पतग उसे घेर लेते हैं, उसी प्रकार बालाजी को देखकर लोग बड़ी शीघ्रता से उनके चतुर्दिक एकत्र हो गये। भारत-सभा के सवा सौ सम्यों ने अभिवादन किया। उनकी सुन्दर वर्दियाँ और मनचले घोड़े नेत्रों में खुवे जाते थे। इस सभा का एक-एक सभ्य जाति का सच्चा हितैपी या और उसके उमंग-भरे शब्द लोगों के चित्त को उत्साह से पूर्ण कर देते थे। सड़क के दोनों ओर दर्शकों की श्रेणी लगी थी। वधाइयाँ बज रही थीं। पुष्प और मेघों को बृष्टि हो रही थी। ठौर-ठौर नगर की ललनाएँ श्रृंगार किये स्वर्ण के थाल मे कपूर, फूल और चन्दन लिये “आरती करती जाती थी। दूकानें नवागत वधू की भाॅति सुसज्जित थीं। सारा नगर अपनी सजावट से वाटिका को लज्जित करता था और जिस प्रकार श्रावण मास में काली घटाएँ उठती है और रह-रहकर धन की गरज हृदय को कॅपा देती है उसी प्रकार जनता को उमंगवर्द्धक ध्वनि (भारत की जय) हृदय में उत्साह और उत्तेजना उत्पन्न करती थी। जब बालाजी