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वरदान
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चौक में पहुँचे तो उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा। बालक वृन्द ऊदे रंग के लैसदार कोट पहिने, केसरिया पगड़ी बाँधे, हाथों में सुन्दर छड़ियाँ लिये मार्ग पर खडे थे। बालाजी को देखते ही वे दस-दस की श्रेणियों में हो गये एवं अपने डण्डे बजाकर यह ओजस्वी गीत गाने लगे —

बालाजी तेरा आना मुबारक होवे।
धनि-धनि भाग्य हैं इस नगरी के, धनि-धनि भाग्य हमारे॥
धनि-धनि इस नगरी के वासी, जहँ तव चरण पधारे।
बालाजी तेरा आना मुबारक होवे॥

कैसा चित्ताकर्षक दृश्य था। गीत यद्यपि साधारण था, परन्तु अनेक और सधे हुए स्वरों ने मिलकर उसे ऐसा मनोहर और प्रभावशाली बना दिया था कि पाँव वहीं रुक गये। चतुर्दिक् सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में यह राग ऐसा सुहावना प्रतीत होता था जैसे रात्रि के सन्नाटे में बुलबुल का चहकना। सारे दर्शक चित्र की भाँति खड़े थे। दीन भारतवासियों, तुमने ऐसे दृश्य कहाँ देखे? इस समय जी भरकर देख लो। तुम वेश्याओं के नृत्य-वाद्य से सन्तुष्ट हो गये, वाराङ्गनाओं की काम-लीलाएँ बहुत देख चुके, खूब सैर सपाटे किये, परन्तु यह सच्चा आनन्द और यह सुखद उत्साह, जो इस समय तुम अनुभव कर रहे हो तुम्हें कभी और भी प्राप्त हुआ था? मनमोहनी वेश्याओं के संगीत और सुन्दरियों का काम-कौतुक तुम्हारी वैषयिक इच्छाओं को उत्तेजित करते हैं, किन्तु तुम्हारे उत्साहों को और निर्बल बना देते हैं और ऐसे दृश्य तुम्हारे हृदयों में जातीयता और जाति-अभिमान का संचार करते हैं। यदि तुमने अपने जीवन में एक बार भी यह दृश्य देखा है, तो उसका पवित्र चिह्न तुम्हारे हृदय से कभी नहीं मिटेगा।

बालाजी का दिव्य मुखमण्डल आत्मिक आनन्द की ज्योति से प्रकाशित था और नेत्रों से जात्यभिमान की किरणें निकल रही थीं। जिस प्रकार कृषक अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर आनन्दोन्मत्त हो जाता