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विदाई
 

है, वही दशा इस समय बालाजी की थी। जब राग बन्द हो गया, तो उन्होंने कई डग आगे बढकर दो छोटे-छोटे बच्चों को उठाकर अपने कन्धों पर बैठा लिया और बोले, ‘भारत-माता की जय!'

इस प्रकार शनै-शनै लोग राजघाट पर एकत्र हुए। यहाँ गोशाला का एक गगनस्पर्शी विशाल भवन स्वागत के लिये खड़ा था। आँगन में मखमल का विछावन बिछा हुआ था। गृहद्वार और स्तम्भ फूल-पत्तियों से सुसज्जित खड़े थे। भवन के भीतर एक सहस्र गायें बँधी हुई थी। बालानी ने अपने हाथो से उनकी नांदी में खली-भूला डाला। उन्हें पार से थपकियाँ दीं। एक विस्तृत गृह में संगमरमर का अष्टभुज कुण्ड बना हुना था। वह दूध से परिपूर्ण था। बालाजी ने एक चुल्लू दूध लेकर नेत्रों से लगाया और पान किया।

अभी आँगन में लोग शान्ति से बैठने भी न पाये थे कि कई मनुष्य दौड़े हुर आये ओर बोले-पण्डित बदलू शास्त्री, सेठ उत्तमचन्द्र और लाला माखनलाल बाहर खडे कोलाहल मचा रहे हैं और कहते है कि हमको बालाजी से दो-दो बातें कर लेने दो। बदलू शास्त्री काशी के विख्यात पण्डित थे। सुन्दर चन्द्र-तिलक लगाने, हरी बनात का अँगरखा परिधान करते और बसन्ती पगड़ी बांधते थे। उत्तमचन्द्र और माखनलाल दोनों नगर के धनी और लक्षाधीश मनुष्य थे। उपाधि के लिए सहस्त्रो व्यय करते और मुख्य पदाधिकारियों का सम्मान और मत्कार करना अपना प्रधान कर्त्तव्य जानते थे। इन महापुरुषों का नगर के मनुष्यों पर बढ़ा दबाव था। बदलू शानी जब कभी शास्त्रार्थ करते, तो नि सन्देह प्रतिवादी की पराजय होती। विशेषकर काशी के पण्डे और प्रापाल तथा इसी पन्थ के अन्य धार्मिक्गण तो उनके पसीने की जगह रुधिर बहाने को उद्दत रहते थे। शानीजी काशी मे हिन्दू-धर्म के रक्षक और महान् स्तम्भ प्रसिद्ध थे। उत्तमचन्द्र और माखनलाल भी धार्मिक उत्साह की मूर्ति थे। लोग बहुत दिनों से बालाजी ने शास्त्रार्थ करने का अवसर ढूँढ रहे थे। आज