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वरदान
१६९
 

उनका मनोरथ पूरा हुआ। वे पडों और प्राग्वालों का एक दल लिये आ पहुँचे।

बालाजी ने इन महात्माओं के आने का समाचार सुना तो बाहर निकल आये। परन्तु यहाँ की दशा विचित्र पायी। उभय पक्ष के लोग लाठियाँ सँभाले अँगरखे की बाँहें चढाये गुथने को उद्द थे। शास्त्रीजी प्राग्वालों को भिड़ने के लिये ललकार रहे थे और सेठजी उच्च स्वर से कह रहे थे कि इन शूद्रों की धज्जियाँ उड़ा दो। अभियोग चलेगा तो देखा जायगा। तुम्हारा बाल बाँका न होने पायेगा। माखनलाल साहब गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते थे कि निकल आये जिसे कुछ अभिमान हो। प्रत्येक को सब्ज वाग दिखा दूँगा। बालाजी ने जब यह रग देखा तो राजा धर्मसिंह से बोले―आप बदलू शास्त्री को जाकर समझा दीजिये कि वह इस दुष्टता को त्याग दें, अन्यथा दोनों पक्षवालों की हानि होगी और जगत् में उपहास होगा सो अलग।

राजा साहब के नेत्रों से अग्नि बरस रही थी। बोले―इस पुरुष से बातें करने में मैं अपनी अप्रतिष्ठा समझता हूँ। उसे प्राग्वालों के समूहों का अभिमान है। परन्तु मैं आज उसका सारा मद चूर्ण कर देता हूँ। उनका अभिप्राय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि वे आपके ऊपर वार करें। पर जब तक मैं और मेरे पांच पुत्र जीवित हैं तब तक कोई आपकी ओर कुद्दष्टि से नहीं देख सकता। आपके एक सक्त-मात्र की देर है। मैं पलक मारते उन्हें इस दुष्टता का स्वाद चखा दूॅगा।

बालाजी जान गये कि यह वीर उमग में आ गया है। राजपूत जब उमग में आता है तो उसे मरने-मारने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता! बोले―राजा साहब, आप दूरदर्शी होकर ऐसे वचन कहते हैं? यह अवसर ऐसे वचनों का नहीं है। आगे बढकर अपने आदमियों को रोकिये, नहीं तो परिणाम बुरा होगा।

बालाजी यह कहते-कहते अचानक रुक गये। समुद्र की तरंगों की