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बिदाई
 

भाँति लोग इधर-उधर से उमड़ते चले आते थे। हाथों में लाठियाँ थीं और नेत्रों में रुधिर की लाली; मुखमण्डल क्रुद्ध, भृकुटी कुटिल। देखते-देखते यह जन-समुदाय प्राग्वालों के सिर पर पहुॅच गया और समय सन्निकट था कि लाठियाँ सिर को चूमे कि बालाजी विद्युत् की भाँति लपककर एक घोड़े पर सवार हो गये और अति उच्च स्वर से बोले―

'भाइयों! यह क्या अन्धेर है? यदि मुझे अपना मित्र समझते हो तो झटपट हाथ नीचे कर लो और पैरों को एक इन्च भी आगे न बढ़ने दो। मुझे अभिमान है कि तुम्हारे हृदयों में वीरोचित क्रोध और उमंग तरंगित हो रहे हैं। क्रोध एक पवित्र उद्वेग और पवित्र उत्साह है। परन्तु आत्म-संवरण उससे भी अधिक पवित्र धर्म है। इस समय अपने क्रोध को दृढता से रोको। क्या तुम अपनी जाति के साथ कुल कर्तव्य पालन कर चुके कि इस प्रकार प्राण विसर्जन करने पर कटिबद्ध हो? क्या तुम दीपक लेकर भी कूप में गिरना चाहते हो? ये लोग तुम्हारे स्वदेश वान्धव और तुम्हारे ही रुधिर हैं। उन्हें अपना शत्रु मत समझो। यदि वे मूर्ख हैं तो उनकी मूर्खता का निवारण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यदि वे तुम्हें अपशब्द कहें तो तुम बुरा मत मानो। यदि वे तुमसे युद्ध करने को प्रस्तुत हों, तो तुम नम्रता स्वीकार कर लो और एक चतुर वैद्य की भाँति अपने विचारहीन रोगियों की औषधि करने में तल्लीन हो जाओ। मेरी इस आज्ञा के प्रतिकूल यदि तुममें से किसी ने हाथ उठाया तो वह जाति का शत्रु होगा।'

इन समुचित शब्दों से चतुर्दिक् शान्ति छा गयी। जो जहाँ था वह वहीं चित्रलिसित-सा हो गया। इस मनुष्य के शब्दों में कहाँ का प्रभाव भरा था, जिसने पचास सहस्त्र मनुष्यों के उमड़ते हुए उद्वेग को इस प्रकार शीतल कर दिया; जिस प्रकार कोई चतुर सारधी दुष्ट घोड़ों को रोक लेता है! और यह शक्ति उसे किसने दी थी? न उसके सिर पर रावमुकुट था, न वह किसी सेना का नायक था। वह केवल उस पवित्र