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पृष्ठ:वरदान.djvu/५६

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सुशीला की मृत्यु
 

मर जायगी, तो उसे भूल जाओगे?

मुन्शीजी―ऐसी बातें न कहो, देखो विरजन रोती है।

सुशीला―बतलाओ, मुझे भूलोगे तो नहीं?

मुन्शीजी―कभी नहीं।

सुशीला ने अपने सूखे कपोल मुन्शीजी के अधरों पर रख दिये और दोनों बाहें उनके गले में डाल दीं। फिर बिरजन को निकट बुलाकर धीरे- धीरे समझाने लगी―‘देखो बेटी! लालाजी का कहना हर घड़ी मानना, उनकी सेवा मन लगाकर करना। गृह का सारा भार अब तुम्हारे ही माथे है। अब तुम्हें कौन सॅभालेगा?’ यह कहकर उसने स्वामी की श्रोर करुणा- पूर्ण नेत्रों से देखा और कहा―‘मैं अपने मन की बात नहीं कहने पायी, जी हूवा जाता है।’

मुन्शीजी―तुम व्यर्थ असमंजस में पड़ी हो।

सुशीला―तुम मेरे हो कि नहीं?

मुन्शीजी―तुम्हारा और आमरण तुम्हारा।

सुशीला―ऐसा न हो कि तुम मुझे भूल जाओ और जो वस्तु मेरी थी वह अन्य के हाथ में चली जाय।

मुन्शीजी―(संकेत समझकर) इसकी चर्चा ही क्यों करती हो? जब तक जीऊँगा, तुम्हारा ही रहूँगा।

सुशीला ने विरजन को फिर बुलाया और उसे वह छाती से लगाना ही चाहती थी कि मूर्च्छित हो गयी। विरजन और प्रताप रोने लगे। मुन्शीजी ने काँपते हुए सुशीला के हृदय पर हाथ रखा। साँस धीरे-धीरे चल रही थी। महराजिन को बुलाकर कहा―‘अब इन्हें भूमि पर लिटा दो।’ यह कहकर रोने लगे। महराजिन और सुवामा ने मिलकर सुशीला को पृथ्वी पर लिटा दिया। तपेदिक ने हड्डियाँ तक सुखा डाली थीं।

अँधेरा हो चला था। सारे गृह में शोकमय और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। रोनेवाले रोते थे, पर कण्ठ बाँध-बाँधकर। बातें होती थीं,