पृष्ठ:वरदान.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
५४
 

पर दवे स्वरों से। सुशीला भूमि पर पड़ी हुई थी। वह सुकुमार अङ्ग, जो कभी माता के अङ्क पला, कभी प्रेमाङ्क में पौढा, कभी फूलों की सेज पर सोया, इस समय भूमि पर पड़ा हुआ था। अभी तक नाड़ी मन्द -मन्द गति से चल रही थी; मुन्शीनी शोक और निराशा-नद में मग्न उसके सिर की ओर बैठे हुए थे। अकस्मात् उसने सिर उठाया और दोनो हाथों से मुशीजी का चरण पकड़ लिया। प्राण उड़ गये। दोनों कर उनके चरण का मण्डल बाँधे ही रहे। यह उसके जीवन की अन्तिम क्रिया थी।

रोनेवाले! रोओ; क्योंकि तुम रोने के अतिरिक्त कर ही क्या सक्ते हो? तुम्हें इस समय कोई कितनी ही सान्त्वना दे, पर तुम्हारे नेत्र अश्रु-प्रवाह को न रोक सकेंगे। रोना तुम्हारा कर्तव्य है। जीवन में रोने के अवसर कदाचित् ही मिलते हैं। क्या इस समय तुम्हारे नेत्र शुष्क हो जायेंगे? आँसुओं के तार बँधे हुए थे, सिसकियों के शब्द आ रहे थे कि महराजिन दीपक जलाकर घर में लायी। थोड़ी ही देर पहिले सुशीला के जीवन का दीपक बुझ चुका था।

_________

[११]

विरजन की विदा

राधाचरण रुड़की कॉलेज से निकलते ही मुरादाबाद के इजीनियर नियुक्त हुए और चन्द्रा उनके सग मुरादाबाद को चली। प्रेमवती ने बहुत रोकना चाहा, पर जानेवाले को कौन रोक सकता है? सेवती कब की ससुराल जा चुकी थी। यहाँ घर में अकेली प्रेमवती रह गयी। उसके सिर घर का काम-काज पड़ा। निदान यह राय हुई कि विरजन के गौने का सन्देशा भेजा जाय। डिप्टी साहब सहमत न थे, परन्तु घर के कामों में प्रेमवती ही की बात चलती थी।

सजीवनलाल ने सन्देशा स्वीकार कर लिया, कुछ दिनों से वे तीर्थ-