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कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष
 


पुस्तकें अवश्य पढ़ी थीं;परन्तु उनका कोई चिरस्थायी प्रभाव उसपर न हुआ या। कभी उसे यह ध्यान ही न आता था कि यह घर मेरा नहीं है और मुझे बहुत शीघ्र यहाँ से जाना पड़ेगा।

परन्तु जब वह ससुराल में आयी और अपने प्राणनाथ पति को प्रति क्षण आँखों के सामने देखने लगी तो शनै-शनै चित्त-वृत्तियों में परिवर्तन होने लगा। ज्ञात हुआ कि मैं कौन हूँ और मेरा क्या कर्तव्य है, मेरा क्या धर्म है और क्या उसके निर्वाह की रीति है? अगली वाते स्वप्नवत् जान पड़ने लगी। हां जिस समय स्मरण हो पाता कि एक अपराध मुझसे ऐसा हुआ है, जिसकी कालिमा को मैं मिटा नहीं सकती,तो स्वयं लज्जा से मस्तक झुका लेती और अपने को धिकारती। उसे आश्चर्य होता कि मुझे लल्लू के सम्मुख नाने का साहस कैसे हुया! कदाचित् इस घटना को वह स्वप्न समझने की चेष्टा करती,तब लल्लू का सौजन्य-पूर्ण चित्र उससे सामने श्रा जाता और वह हृदय से उसे आशीर्वाद देती;परन्तु अाज जब प्रतापचन्द्र की क्षुद्र-हृदयता से उसे यह विचार करने का अवसर मिला कि लल्लू उस घटना को अभी भूला नहीं है और उसकी दृष्टि मे श्रव मेरी प्रतिष्ठा नहीं रही;यहाँ तक कि वह मेरा मुख भी नहीं देखना चाहता,तो उसे ग्लानि- पूर्ण क्रोध उत्पन्न हुश्रा। प्रताप की ओर से चित्त मलिन हो गया और उसकी जो प्रेम और प्रतिष्ठा उसके हृदय में थी,वह पल भर में जल-कण की भांति उड़ने लगी। स्त्रियों का चित्त बहुत शीघ्र प्रभावमाही होता है। जिस प्रताप के लिए वह अपना अस्तित्व धूल में मिला देने को तत्पर थी, वही उसके एक बाल-व्यवहार को भी क्षमा नहीं कर सकता? क्या उसका हृदय ऐसा संकीर्ण है? यह विचार विरजन के हृदय में कांटे की भाति खटकने लगा।

श्रान से विरजन की सजीवता लुप्त हो गयी। चित्त पर एक बोझ-सा रहने लगा। सोचती कि जब प्रताप मुझे भूल गये और मेरी रत्ताभर भी प्रतिष्ठा नहीं करते,तो इस शोक से मैं क्यों अपना प्राण धुलाऊँ ?जैसे 'राम तुलसी से,वैसे तुलसी राम से ।'यदि उन्हें मुझसे घृणा है;यदि