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श्री हर्ष


लिये वह एकदम पहुंचा गया। इस प्रकार राज्यश्री का उद्धार हुआ। तदनन्तर सब दिवाकर मुनि के आश्रम को आये। आश्रम की पवित्रता से मुग्ध हो राज्यश्री ने बौद्ध सन्यासिनि होने की आज्ञा हर्ष से मांगी। हर्ष और दिवाकरमित्र ने ऐसा न करने को समझाया हर्ष कहने लगा कि हम अपने जीवनका उद्देश पूर्ण करइकठ्ठे ही भगवे वस्त्र धारण करेंगें। हर्ष अपनी भग्नि सहित गंगातटस्थ छावणी में लौट आया। बाण कवि ने अपने हर्ष चरित्र में यहां तक का सविस्तर वर्णन दिया है परन्तु आगे का भाग अधूरा छोड़ दिया है। हर्ष के राज्यकाल में प्रवास करने वाले प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्युयेनत्सङ्ग ने हर्ष के पराक्रमों का वर्णन दिया है, उस पर से आगे का इतिहास जाना जा सकता है।

राज्यश्री के साथ हर्ष थानेश्वर को लौटा। थानेश्वर के कुटुम्ब में केवल वही अब जीवित था। राज्यवर्धन ने विवाहहर्ष का राज्याभिषेक नही किया था, ऐसा बाण के “कलंत्ररक्षत्विति श्रीस्ते भिस्त्रिंशेधिवसति" वाक्य पर से पता लगता है इस लिये उसकी कोई भी सन्तान् नहीं थी। अब