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श्री हर्ष


थानेश्वर की गद्दी का उत्तराधिकारी केवल हर्ष ही था। भण्डी की सम्मति तथा सर्वानुमति से इ. स. ६०६ में वह सिंहासनारूढ़ हुआ। ह्युयेनत्सङ्ग ने लिखा है कि गद्दी पर बैठने और न बैठने का प्रश्न कुछ काल तक हर्ष के विचाराधीन रहा। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह शङ्का उसे कन्नौज की गद्दी के सम्बन्धमें हई होगी हर्ष चरित में "अवन्तिवर्मणःसूनुरग्रजो ग्रहवर्मा" ऐसा कहा है, इस पर से यह मालूम होता है कि ग्रहवर्मा, अवन्तिवर्मा का सबसे बड़ा पुत्र था, फिर उसकी पत्नी राज्यश्री का स्वत्व हटाकर किसी दूसरे को वह गद्दी किस प्रकार दी जा सकती थी। इतने दुःखों के पश्चात राज्यश्री का उद्धार हुआ था तो फिर उसे गद्दी का सुख क्यों नहीं दिया जाय, इस प्रकार के प्रश्न हर्ष के सामने उपस्थित हुये। ग्रहवर्मा तथा राज्यश्री बौद्धधर्मावलम्बी थे, और हर्ष वास्तव में शैव था ऐसा उसके राजकाल के नौवें वर्ष के बंसखेर के शिलालेख के 'परम महेश्वर' से तथा बाण के "विरचय्यपरमभगवतो नीललोहितस्यार्चाम्" से कहा जा सकता है। ऐसा होने पर भी वह बालकपन