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श्री हर्ष


समय व्यतीत होने पर हर्ष ने उसे गङ्गा तट के पूर्व का भाग देकर महाराजा की पदवी से भूषित किया होगा ऐसा आदित्यसेन के अफसदके शिलालेख से कहा जा सकता है।

पहिले जब हर्ष दिग्विजय के लिये निकला तो उस समय राज्यश्री की खोज के कारण विघ्न पड़ गया था। अब उसके मिलने पर अपनादिग्विजय के निमित्त पुनः कूच उद्देश सफल करने के लिये फिर दिग्विजय निमित्त कूच की तैय्यारी की। इस समय उसके पास कन्नौज तथा थाणेश्वर की कुल सेना मिलाकर ५००० हाथी, ५०,००० प्यादे तथा २०,००० घुड़सवार थे। अपने भाई राज्यवर्धन तथा कुमारगुप्त का वध करनेवाले शशाङ्कगुप्त से उसने किस प्रकार का वैर लिया यह निश्चितरूप से मालूम नहीं हुआ। गुप्त वंशी संवत ३०० का अर्थात् इसवी सन ६१९ का ताम्रपत्र जो गंजम प्राम से प्राप्त हुआ है, उसमें शशाहगुप्त के आधीन किसी राजा के एक ब्राह्मण को एक गांव इनाम में देने का