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पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/३५

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है, परन्तु इतिहास में अथवा शिलालेखों में आज तक इस राजा का नाम कहीं नहीं पाया गया। कोई कोई यह कहते हैं कि इस पञ्चाशिका का कर्ता चौर नामक कोई कवि हो गया है, परन्तु इसका भी प्रमाण कहीं नहीं पाया जाता।

"रहस्यसन्दर्भ" में लक्ष्मीमन्दिर की राजपुत्री यामिनीपूर्णतिलका का उल्लेख करके उसके और बिल्हण के स्नेह-संरम्भ की आख्यायिका एक दूसरे ही प्रकार से वर्णन की गई है। उसमें लिखा है कि मदनाभिराम राजा ने बिल्हण को अपनी कन्या का शिक्षक नियत करना चाहा, परन्तु जिसमें वे दोनों एक दूसरे को परस्पर देख न सकें, इसलिए बिल्हण से यहा कहा, कि यामिनीपूर्णतिलका कुष्ठ रोग से पीड़ित है और अपनी कन्या से यह कहा कि बिल्हण अन्धा है। यह कह कर दोनों के बीच में पर्दा डाल कर अध्ययन और अध्यापन कार्य्य उसने प्रारम्भ कराया। राजपुत्री बड़ी बुद्धिमती थी; अतएव थोड़े ही दिनों में वह नानालङ्कार और नाना-भाव-समन्वित काव्यादि में निपुण हो गई। एक बार सायङ्काल, पौर्णमासी के चन्द्रमा को देख कर, बिल्हण ने इस प्रकार कविता की-