नेदं नभो मण्डलमिन्दुराशिर्नैताश्च तारा नवफेनभङ्गाः।
नाथ शशी कुण्डलितः फणीन्द्रो नायं कलङ्कः शयितो मुरारिः॥
अर्थात् यह आकाश-मण्डल नहीं है, समुद्र है। ये तारे नहीं हैं, फेन के टुकड़े बिखरे हैं। यह चन्द्रमा भी नहीं है, कुण्डलना किये हुए शेष बैठा है। यह कलङ्क भी नहीं है; विष्णु सो रहे हैं।
इसके आगे एक और श्लोक बिल्हण ने इस प्रकार कहा-
इन्दुभिन्दुमुखि! लोकय लोकं; भानुभानुभिरमुं परितप्तम्।
वीजितुं रजनिहस्तगृहीतं; तात्मवृन्तमिव नालविहीनम्॥
अर्थात् हे चन्द्रमुखि! चन्द्रमा को देख। सूर्य्य की किरणों से सन्तप्त हुए संसार को शीतल करने के लिए, रात्रि ने, बिना नाल के ताड़ के पंखे के समान, मानो उसे हिलाने के लिए अपने हाथ में ग्रहण किया है!
इस प्रकार बिल्हण की अपूर्व कविता को सुन कर राजकन्या को विदित हो गया कि बिल्हण अन्धा नहीं है, उस विषय में उसके पिता ने उससे प्रतारणा की है। अतएव उसने बिल्हण को देखा। उस दिन से परस्पर दोनों में प्रेम-सम्भाषण होने