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पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/३७

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लगा। कुछ दिन बाद दोनों का गान्धर्व-विवाह हो गया। जब यह गुप्त रहस्य राजा को विदित हुआ तब उसने बिल्हण के वध किये जाने की आज्ञा दी। इस पञ्चाशिका को बिल्हण ने वधस्थल ही में बनाया।

बिल्हण ने विक्रमाङ्कदेवचरित के अठारहवें सर्ग में इन आख्यायिकाओं से सम्बन्ध रखनेवाली न तो कोई बात ही कही, और न लक्ष्मी मन्दिर को जाने अथवा वहाँ रहने ही का कोई उल्लेख किया। अतएव इस आख्यायिका की सत्यता अथवा असत्यता का निर्णय करना हम विचारवान् वाचकों ही पर छाड़ते हैं। इस पञ्चाशिका की कविता विक्रमाङ्कदेवचरित की कविता से कुछ मिलती है। शार्ङ्गधर-पद्धति के कर्ता शार्ङ्गधर ने उस ग्रंथ में इस पञ्चाशिका से कई पद्य उद्धृत भी किये हैं। शार्ङ्गधर १४ वीं शताब्दी में, अर्थात् बिल्हण के चार ही सौ वर्ष पीछे, हुआ है। वह इसे बिल्हण-कृत ही बतलाता है। अतएव हमें उसके कथन के मानने में कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती। इस पञ्चाशिका की कविता अत्यन्त ही सरस और हृदयाह्लादकारिणी है। उसकी उक्तियों

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