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विचित्र प्रबन्ध।

समझा जा सकता है! मन व्याकुल हो उठा, शरीर पसीने पसीने हो गया, मतली का भी ज़ोर बढ़ने लगा। बहुत देर ढुँढ़न ढाँढ़ने के बाद सहसा द्वार का पता चला―अकस्सात् द्वार खोलने की श्वेत काँच की बनी चिकनी मूठ हाथ में लगी। उस समय मालुम हुआ कि ऐसी प्रिय वस्तु का स्पर्श बहुत दिनों से नहीं हुआ। किवाड़े खोल कर मैं बाहर गया और आशङ्कित होकर उसके बाद के दूसरे के बिन के द्वार पर पहुँचा। बहा लैम्प जल रहा था। मैंने देखा कि मेज़ पर उतारे हुए गाउन, पेटी, कोट आदि स्त्रियों के पहनने के कपड़े रक्खे है। और कुछ अधिक देख पड़ने के पहले ही मैं वहाँ से भागा। प्रचलित कहावत के अनुसार तीन बार तक की भूल माफ़ की जाती है अथवा तीन बार तक मनुष्यों को भूल करने का अधिकार है। परन्तु तीसरी बार परीक्षा करने का मुझे साहस नहीं रहा; और परीक्षा करने का शक्ति भी नहीं थी। बिना विलम्ब मैं जहाज़ की छन पर चला गया। वहाँ जहाज़ के कठघरे के सहारे मैं खड़ा हो गया और बिह्लल-चित्त की घबराहट को शान्त करने लगा। इसके बाद बहुत लाञ्छना सहे हुए अपराधी के समान एक बेञ्च पर अपना कम्बल समेट कर रक्खा और उस पर सिर रख कर में लेट गया।

पर यह तो बड़ा अनर्थ हुआ। यह कम्बल किसका है! मेरा तो नहीं मालूम होता। मालूम होता है, जिस सोये हुए भले आदमी के कमरे में रात का मैं घुस कर दस मिनट तक सब सामान स्वर-भराता रहा था, यह उसीका कम्बल है। एक बार इच्छा हुई कि धीरे धीरे उसके कमरे मेँ जाऊँ और यह कम्बल रख कर अपना