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विचित्र प्रबन्ध।

बहुत दूर पर समुद्र में एक-आध जहाज़ देख पड़ता है। समुद्र में बीच बीच ऊपर कठिन-काले जले-तपे जन-शून्य पहाड़ देख पड़ते हैं। अन्यमनस्क पहरुए के समान समुद्र के बीच में खड़े होकर उदासीन भाव से मानों वे ताक रहे हैं। सामने से कौन आता है और कौन जाता है, इस ओर उनका कुछ भी ध्यान नहीं।

इसी प्रकार धीरे धीरे सूर्यास्त का समय आगया। संसार में यदि "कैसल आफ़ इण्डोलेंस" ( आलस्य का क़िला ) कोई है तो यह जहाज़ ही है; खास कर गरमी के दिनों में और प्रशान्त- लोहित-सागर में। चञ्चल अँगरेज़ों के लड़के भी दिनभर आराम- कुरसी पर पड़े अपनी टोपी से मुँह ढँके दिन में भी सोते रहते हैं। यदि कोई चलता है, यदि किसी में गति है तो वह जहाज़ में। और, उसके आस पास की टक्कर से चञ्चल समुद्र का नीला जल अलस-आपत्ति का क्षीण शब्द करता हुआ इधर उधर हट जाता है।

सूर्य अस्त हो गये। आकाश और जल मेँ सुन्दर रंग देख पड़ा। समुद्र निस्तब्ध है, उसके जल में एक रेखा भी नहीं है। दिगन्त विस्तृत समुद्र की जलराशि यौवन-पूर्ण शरीर के समान ठोस और सुडौल देख पड़ती है। यह अखण्ड परिपूर्णता आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैली है। मानों यह विशाल समुद्र वहाँ आकर ठहर गया है। वहाँ जैसे आगे जाने का मार्ग नहीं है, परिवर्तन नहीं है। वह स्थान जैसे सदा के लिए चञ्चलता का परम परिणाम तथा अन्तिम निर्वाण है। सूर्यास्त के समय चीलें जैसे आकाश की नीलिमा में जाकर अपने पंख फैला कर चलना बन्द कर देती हैं, ठीक वैसे ही सदा-चञ्चल रहनेवाला समुद्र भी शान्ति