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विचित्र प्रबन्ध।

१८ सितम्बर। यहाँ मार्ग में घूमने में आनन्द है। क्योंकि मार्ग में निकलने से सुन्दर मुख देखने को मिलेंगे ही। यदि श्रीयुत् देशानुराग महाशय से हो सके तो मुझे क्षमा करें, सच तो यह है कि अँगरेज़-रमणियाँ सुन्दरी होती हैं। मेरे शुभचिन्तक मेरे लिए शङ्कित और चिान्तत हो सकते हैं, बहुत सम्भव है कि मित्रगण मेरी हँसी उड़ावें, तथापि मुझे यह बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि सुन्दर मुखड़ा मुझे सुन्दर ही लगता है। यदि ऐसा न होता तो विधाता का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता। सुन्दरता और मधुर हास्य, ये मनुष्यों की अद्भुत शक्तियाँ हैं। भाग्य-वश वह हँसी इस देश में मैं अधिकता के साथ देख पाता हूँ। प्रायः मार्ग में नीली आँखोंवाली कोई स्त्री जब सामने मिल जाती है तब वह मेरी ओर देखती और बड़े ज़ोर से हँसने लगती है। उस समय यही इच्छा होती है कि उसे बुला कर कहूँ―सुन्दरी, हँसी मुझे भी भली मालूम होती है, पर इतनी नहीं। और, तुम्हारे मुख पर चाहे हँसी की रेखा कितनी ही भली क्यों न मालूम हो, पर उसका भी काई युक्ति-सङ्गत कारण होना चाहिए। क्योंकि मनुष्य केवल सुन्दर ही नहीं है, किन्तु बुद्धिमान् भी है। हे नीलकमल-नयनी, मैं तो अँगरेज़ों के ऐसे असभ्य वस्त्र और कुरुचिपूर्ण लम्बी टोपी नहीं पहनता, फिर तुम क्या देखकर हँस रही हो? मैँ सुन्दर हूँ या कुरूप हूँ, इस विषय में कुछ कहना अनुचित है। तथापि यह बात तो मैं बड़े साहस के साथ कह सकता हूँ कि विधाता ने कुरूपता की क़लम से मेरा मुख-मण्डल नहीं अंकित किया है। हाँ, यदि काले रङ्ग और लम्बे लम्बे बालों को देख कर तुम हँस रही हो, तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि