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योरप की यात्रा।

बीच में एक बार उठकर जो मैंने देखा तो मालूम हुआ कि समुद्र के दोनों ओर मटमैले रङ्ग की बालु है तथा जल के समीप झाड़ और सूखे तृण खड़े हैं। हम लोगों के दाहनी ओर बालू के मैदान में अरबों का एक काफ़िला ऊँटों पर बोझ लादे चला जा रहा है। कड़ी धूप और तपी हुई मरु-भूमि मेँ अरबों के नीले कपड़े और सफ़ेद पगड़ियाँ देख पड़ती हैं। कोई, एक स्थान पर, बालू के टीले की छाया में पैर फैला कर सोया हुआ है। कोई नमाज़ पढ़ता है और कोई ऊँटों की रस्सी पकड़ कर उन्हें आगे की ओर खींच रहा है। ऊँट आगे बढ़ना नहीं चाहता परन्तु वह बल-पूर्वक आगे बढ़ाया जा रहा है। सब मिला कर देखने से कड़ी धूप मेँ अरब की मरुभूमि का चित्र सा आँखों के मामन खिंच गया।

२४ अक्तूबर। हमारे जहाज़ की अमुक मिस देखने से टूटी हुई नाट्यशाला का एक अंश जान पड़ती है। टूटी हुई नाट्यशाला में न तो अभिनय ही होता है और न वह रहने ही के योग्य होती है। यह स्त्री है बड़ी तेज़। मालूम होता है, जवानी में इसने अनेक मनुष्यों पर तीक्ष्ण बाणों का प्रयोग किया है। यद्यपि यह इस समय भी नाक-भौं चढ़ा कर बातें करती है, और तुरत के पैदा हुए बिलैया के बच्चे के समान क्रीड़ा-चतुर है, तथापि कोई भी युवक इसके साथ एक दो बातें करने के लिए मौका नहीं ढूँढ़ता। नाच के समय इसको कोई भी नहीं बुलाता, और न भोजन के समय ही आदर-पूर्वक कोई इसके लिए भोजन परोसता है। इस की चञ्चलता शोभा-हीन है, तेज़ी ज्याति-रहित है; और प्रौढ़ता के साथ साथ स्त्रियों के मुँह पर जो एक प्रकार का स्नेह-मय प्रसन्न