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विचित्र प्रबन्ध।

सम्मिलन से पूर्ण होता है। पर लिखने के लिए एक मार्ग नियत रहता है। अतएव लेख के द्वारा सब विरोधों का परिहार, सब अव्यवस्थाओं की व्यवस्था नहीं की जा सकती। वह केवल कुछ ही बातें प्रकाशित करता है। एक कोई घटना हुई। लेख में उसके युक्ति-संगत सिद्धान्त का ही उल्लेख करना पड़ेगा। वह सिद्धान्त सच्चा सिद्धान्त नहीं होगा; लेख के नियमानुसार वह बनाया हुआ ही होता है। जीवन को भी उसी बनावटी सिद्धान्त का अनुसरण करना पड़ेगा।

अपनी बातों को साफ़ साफ़ समझा देने के लिए मैं व्याकुल हो रहा था। यह देख कर दया-पूर्दक नदी बोली कि जो तुम कहना चाहते हो वह मैं समझ गई हूँ। स्वभाव से ही हम लोगों के अधीश्वर अपनी गुप्त कर्मशाला में बैठ कर किसी अपूर्व नियम के अनुसार हम लोगों का जीवन बनाते हैं। परन्तु डायरी लिखने से जीवन-निर्माण का भार दों मनुष्यों के अधीन हो जाता है। कितनी ही डायरियाँ जीवन के अनुसार बनती हैँ और कितने ही जीवन डायरी के अनुसार बनते हैं।

नदी जिस सहनशीलता या धैर्य के साथ ध्यान-पूर्वक मेरी बातें सुन रही थी, उसे देख कर जान पड़ता था कि यह हमारी बातों को सुनने का प्रयत्न कर रही है। पर उसी समय यह भी भासित हो गया कि इसने बहुत पहले ही मेरी बात को समझ लिया है।

मैंने कहा―हाँ, यही बात है।

दीप्ति ने कहा―इसमें हानि क्या है?

इसके उत्तर में मुझे बहुत कुछ कहना था। पर मैंने देखा कि