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पञ्चभूत।

वायु ने कहा―बहुत से मनुष्य भावों के सत्य और मिथ्या होने का ज्ञान उनके परिमाण के अनुसार करते हैँ। जो अधिक स्थूल है उसमें सत्यता का अंश भी अधिक है। सुन्दरता की अपेक्षा धूल सत्य है, स्नेह की अपेक्षा स्वार्थ सत्य है और प्रेम की अपेक्षा भूख सत्य है।

मैंने कहा―तथापि बहुत दिनों से मनुष्य वज़नी और स्थुल पदार्थों की सत्यता को अस्वीकार करने की चेष्टा कर रहा है। धूल को ढकता है, स्वार्थ का लज्जा का कारण मानता है और भूख को हृदय के भीतर निर्वासित कर रखता है। मलिनता पृथिवी का स्वाभाविक धर्म है। इसे तो आदि-सृष्टि का पदार्थ कहना चाहिए। धूल की अपेक्षा प्राचीन पदार्थ का मिलना भी यहाँ कठिन है। इस कारण वह ता सब की अपेक्षा अधिक सत्य हुई और जो हृदय की लक्ष्मी-गृहिणी अन्तर के अन्तःपुर से आकर धूल को नित्य हटाने का प्रयत्न करती है उसीको क्या असत्य समझ कर त्याग देना चाहिए?

क्षिति ने कहा―क्यों भाई, तुम लोग इतना डरते क्या हो? मैं तुम लोगों के उस अन्तःपुर की दीवार को डेनामाइट के द्वारा उड़ाने के लिए नहीं आई हूँ। आप लोग ज़रा ठण्डे होकर बतावें कि, इस पुण्याह के दिन बेसुरी शहनाई बजाने से पृथ्वी का क्या संशोधन किया जा रहा है! इसमें तो संगीत भी नहीं है।

वायु ने कहा―वह और कुछ नहीं, केवल एक तरह का अला- पना है और वर्ष भर के अनेक प्रकार के शब्दों की त्रुटियों को एक सुर में कहना है। स्वार्थ-मय संसार में समय समय पर गान की चर्चा होती रहने से थोड़ी देर के लिए यह पृथिवी सुशोभित हो