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विचित्र प्रबन्ध।

कि यदि इस प्रकार मनुष्य में अपने आभावों को दूर करने की शक्ति न होती तो वह कभी का पशु हो गया होता।

कुछ दुखी होकर नदी ने कहा―यह बात नहीं है कि मनुष्य विवश होकर इस प्रकार आत्मप्रतारणा करता है। जहाँ हम लोगों की हार होने की सम्भावना नहीं है, हम लोग ही प्रबल हैं, वहाँ आत्मीयता स्थापित की जाती है। इसके उदाहरणों की भी कमी नहीं। गाय को हमारे देशवाले क्यों माता कहते और उसकी पूजा करते हैं? वह तो असहाय पशु है। हम लोग बली हैं, वह दुर्बल है; हम लोग मनुष्य हैं, वह पशु है। किन्तु हम लोग अपनी श्रेष्ठता को स्थिर रखने के लिए ही ऐसा करते हैं। उससे हम लोगों को जो कुछ फल भी मिलता है उसका कारण हम लोगों का प्रबल होना है; हम लोग समर्थ हैं और उसके पास कोई साधन नहीं है, इसी कारण हम लोग उससे लाभ उठाते हैं―इस बात को मानने के लिए हम लोगों का आत्मा तैयार नहीं। उस उपकारिणी धीर और शान्त गाय को हम लोग माता समझते हैं, इसी कारण उसका दूध भी पीत हैं और उससे विशेष तृप्त तथा प्रसन्न होते हैं। मनुष्य और पशु का यह भाव का सम्बन्ध है। ऐसे भाव का सम्बन्ध स्थापित करके ही उसकी सृष्टि-चेष्टा विश्राम-लाभ करती है।

व्योम ने बड़ी गम्भीरता से कहा―तुमने एक बहुत बड़ी बात कही है।

यह सुन कर नदी चौंक उठी। ऐसा कौन सा पाप उसने किया है, यह बात उसकी समझ में नहीं आई। इस अज्ञात-अप- राध के लिए उसने मन ही मन क्षमा की प्रार्थना की।