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पञ्चभूत।

भी नहीं देख पड़ते। निर्जनता मेँ ही ज्ञान का प्रकाश और भाव का आविर्भाव होता है। यथार्थ पुरुष सदा ही निर्लिप्त होकर निर्जन स्थान में रहता है। कर्मवीर नेपोलियन भी कभी अपने कार्यों मेँ लिप्त नहीं रहता था। वह कहीं भी क्यों न रहे, अपने लिए निर्जन स्थान अवश्य बना लेता था। वह सदा ही अपने भावाकाश में निवास करता था। वह अपने विचारों में इस प्रकार लिप्त रहता था कि कार्य-क्षेत्र भी उसके लिए निर्जन ही के समान था। भीष्म-पितामह कुरुक्षेत्र के युद्ध के एक नायक थे। पर उस जनसमूह में रह कर भी वे सदा निर्जन में रहा करते थे। उनके समान निर्जन-वासी मनुष्य कोई नहीं था। मालूम नहीँ, वे काम करते थे या ध्यान में मग्न रहते थे। स्त्रियाँ ही यथार्थ में काम करती हैँ। कार्यों के कारण उन्हें एक घड़ी के लिए भी विश्राम नहीं मिलता। वे सदा कार्यों ही में लिप्त रहती हैँ। वास्तव में वे ही जन-समूह में रहती हैं और संसार की रक्षा करती हैं। स्त्रियाँ ही यधार्थ रूप से कार्यों में सम्मिलित हो सकती हैँ।

दीप्ति ने कहा―तुम्हारी सभी बातें अद्भुत हैं। तुम्हारी बातों को समझ लेना बड़ा ही कठिन है। स्त्रियाँ काम नहीं कर सकतीं, ऐसा तो मैं नहीं कहती। क्या तुम लोग स्त्रियों का काम करने देते हो?

व्योम ने कहा―स्त्रियाँ स्वयं ही कर्म-बन्धन में बँधी हुई हैं। जैसे अंगारा आप अपने को भस्म के रूप में परिणत करता है वैसे ही स्त्रियाँ भी अपने को अनेक कार्यों के सम्पादन के द्वारा कर्मों में फँसा लेती हैँ। उनके चारों और कर्म फैला हुआ है। कर्म ही उनके रहने का स्थान है। वही उनका अन्तःपुर है। वहाँ से उन्हें