पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२२७

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२१६ विचित्र प्रबन्ध । मैं सोचने लगा-इन मूर्ख निरक्षर किसानों को मैं थ्योरी के हिसाब से असभ्य बर्बर कहकर अवज्ञा का भाव प्रकट करता हूँ। पर पास आकर मैं यथार्थ में इन्हें अपना आत्मीय सासमझने लगता हूँ; इनसे प्रेम हो जाता है और मेरा अन्तःकरण गुप्त रूप से इनके प्रति श्रद्धा करने लगता है। परन्तु लन्दन और पैरिस के किसानों के साथ तुलना करने से ये उनके आगे बहुत ही हीन जंचते हैं ! कहाँ वहाँ की राजनीति, शिल्प और साहित्य, और कहाँ ये किसान ! देश के लिए प्राण देने की बात तो दूर है, ये यह भी नहीं जानते कि देश किसको कहते हैं। इन बातों का विचार कर लेने पर भी मेरे हृदय में यह बात बार बार प्रतिध्वनित होने लगो, कि ये अबोध और सीधे मनुष्य केवल स्नेह के ही योग्य नहीं हैं, श्रद्धा के पात्र भी हैं। इन लोगों पर मैं क्यों श्रद्धा करता हूँ, इमका कारण हूँढ़ने लगा। विचार करने पर मालूम हुआ कि इन लोगों में सरल विश्वास और उसका मूल्य बहुत अधिक है। वह मनुष्यत्व का सबसे बड़ा प्रधान धन है । यदि मुझसे कोई मेरे हृदय की बात पृछे, तो मैं साफ़ साफ़ यह कहूँगा कि इस संसार में और दूसरी कोई भी वस्तु सरल विश्वास की अपेक्षा अधिक मनाहर नहीं है। उस सरलता के न रहने पर सभ्यता की सारी सुन्दरता जाती रहती है ; क्योंकि स्वास्थ्य नहीं रहता । मनुष्य-प्रकृति का स्वास्थ्य सरलता ही है। शरीर के स्वास्थ्य के लिए जितना भोजन किया जाय उसका