पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२५९

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२४९ विचित्र प्रबन्ध । बाबू ने अपनी डायरी में एक प्रबन्ध लिखा है। उसमें उन्होंने मन नामक एक भयानक पदार्थ के उपद्रवों का वर्णन किया है। उस प्रबन्ध को आप लोगों ने भी पढ़ा होगा। मैंने उसीके पास कुछ टिप्पणी कर रखी है। यदि आप लोग उसे सुनना चाहें ता मैं उसे पहूँ । उससे मेरा अभिप्राय आप लोगों की समझ में अच्छी तरह आ जायगा । क्षिति ने हाथ जोड़ कर कहा-सुनो भाई वायु, लेखक और पाठक का जो सम्बन्ध है वही स्वाभाविक सम्बन्ध है। आपकी इच्छा हुई आपने लिखा और मेरी इच्छा हुई तो मैंने पढ़ लिया। इसमें किसी को भी कुछ कहन-सुनने की बात नहीं रह गई ! मानों म्यान में तलवार ठीक ठीक ममा गइ । परन्तु यदि तरवार किसी के अस्थि-चर्म-मय शरीर में घुसे और वहाँ अपनी आत्मीयता स्थापित करना चाहे तो क्या म्वाभाविक होगा या काई उसे पसन्द करेगा ? लेखक और श्रोता का सम्बन्ध अम्वाभाविक और अनुचित है । भगवन्, श्रापसे यही प्रार्थना है कि हमारं पापों का जैसा चाहें वैसा आप दूसरा दण्ड दें, परन्तु ऐसी व्यवस्था श्राप अवश्य करें कि दूसरे जन्म में डाकुर का थोड़ा, पागल की स्त्री और लेखक का बन्धु न होना पड़े। व्योम हँसने लगा। उसने कहा-बन्धु का अर्थ बन्धन है और जब प्रबन्ध (लेख) और बन्धन ये दोनों एकत्र होंगे तब तो फाँसी पर फाँसी ही होगी। यही तो कटे पर नमक छिड़कना है। दीप्ति ने कहा-न हमने के लिए आज मैं दो वर्ष से प्रार्थना कर रही हूँ, परन्तु उसका फल कुछ भी नहीं हुआ। इतने दिनों मैं