पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२७०

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पञ्चभूत। २५६ इसीका नाम शोभा है। यह काम बुद्धि का नहीं, अनिर्वचनीय प्रतिभा का है। यह मन की शक्ति नहीं है किन्तु आत्मा की गूढ़ शक्ति है । यह सुर जो ठीक अपने स्थान ही पर जाकर आघात करता है, बातें जो ठीक ठीक अपना अर्थ बोधन करती हैं, और काई काम जो ठीक समय सिद्ध होता है यह सब उस अत्यन्त गुप्त मारे जगत के केन्द्र से स्वाभाविक स्फटिक धारा के समान निकला हुआ प्रवाह है । उस कंन्द्र-भूमि का अचेतन न कहकर महाचैतन कहना ही उचित है। प्रकृति में जो सौन्दर्य है वही प्रभावशाली और विद्वान मनुष्यों में प्रतिभा कही जाती है, तथा स्त्रियों में वर्तमान उसी सौन्दर्य को श्री-शोभा कहते हैं। वहीं स्त्रियों का प्रधान धर्म है। एक ही सौन्दर्य, पात्र-भेद से, भिन्न भिन्न रूप में विकसित होता है। इसके पश्चात व्योम ने वायु को और दम्पकर कहा--हाँ, अब पाप कहिए । श्राप अपना लिया अब समाप्त कर डालिए । वायु ने कहा-अब काई आवश्यकता नहीं । मैंने जो प्रारम्भ किया था उसका आपने एक प्रकार से उपसंहार कर दिया। तिति ने कहा-वैद्य महाराज ने प्रारम्भ किया था और डाकूर साहब उसे समाप्त करके बिदा हुए ! मन क्या है, बुद्धि क्या है, आत्मा क्या है, सौन्दर्य क्या है और प्रतिभा किमका कहते हैं- प्रादि बातें मैंने आज तक नहीं समझी थी, परन्तु समझने की आशा थी । सो उस पाशा पर भी आज पानी फिर गया। जिस प्रकार रंशम को मनुष्य ज़रा नीचे मुँह करकं बड़ा साब-