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विचित्र प्रबन्ध।

“तृषार्त हइया चाहिलाम एक घटि जल।
ताड़ाताड़ि एने दिले आधखाना बेल॥”

एक प्यासे मनुष्य ने एक गिलास जल माँगा, परन्तु उसको दिया गया बड़ी शीघ्रता से आधा बेल। इसमें दूसरों को आनन्दित होने का धर्म-सङ्गत और युक्ति-सङ्गत कोई कारण नहीं है। जिस मनुष्य ने जल माँगा था उसे यदि जल लाकर दिया जाता तो अवश्य ही उसके प्रति सदय व्यवहार करने के कारण हम लोगों को आनन्दित होने का अवसर मिलता। परन्तु उसको आधा बेल देने से मालूम नहीं लोग क्यों आनन्दित होते हैं; मालूम नहीं इस कार्य से हम लोगों के हृदय की कौन सी वृत्ति प्रफुल्लित होती है। इस कौतुक और सुख में जब भेद वर्त्तमान है तो इनका प्रकाशन पृथक् रीति से होना चाहिए। परन्तु प्रकृति के अधिकार में ऐसा ही होता है। कहीं तो व्यर्थ अपव्यय किया जाता है और कहीं आवश्यकता रहने पर भी हाथ खींच लिया जाता है। एक ही हँसी के द्वारा सुख और कौतुक दोनों का प्रकाशित होना उचित नहीं जान पड़ता।

व्योम ने कहा―आप लोग प्रकृति पर व्यर्थ ही दोषारोपण करते हैं। मनुष्य सुख से मुसकुराते हैं और कौतुक से अट्टहास्य करते हैं। इनमें एक स्थायी होता है और दूसरा क्षणिक।

वायु ने व्योम की बातों पर ध्यान नहीं दिया। वह बोला―आमोद और कौतुक सोलहों आने सुख नहीं हैं किन्तु ये भी दुःख के एक भेद हैं। जिस दुःख और पीड़ा का आघात हम लोगों के हृदय पर थोड़ी मात्रा में होता है उससे हम लोगों को सुख