पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३२१

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विचित्र प्रबन्ध । लोगों के सिद्धान्त की कंवल सीमा नियत हो जाती है । इस प्रश्न सं यह बात मालूम हुई कि सार आघात कौतुक-प्रद उत्तेजना उत्पन्न नहीं करते, अतएव अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि किस प्रकार के प्राघात से कौतुक-जनक उत्तेजना उत्पन्न होती है जड़-प्रकृति में करुण-रस और हाम्य-रम नहीं है। जिस समय एक पत्थर दूसरे पत्थर से टकराता है उस समय न तो हम लोगों को करुणा होती है और न हम लोग रोते ही हैं। मैदान में जा रहे हैं, वहाँ एकाएक अपने ममूह से विछड़ा हुआ पत्थर दीग्य पड़ा, परन्तु किसी को भी हँसी नहीं पाई। नदी, साते. पर्वत आदि में भी कहीं कहीं विचित्रता दीख पड़ती है। इनसे इन्द्रियां का प्राघात पहुँचता है और पीड़ा भी होती है। पर ये प्रामात कातुक-जर -जनक नहीं हैं। सचेतन पदावों की विलक्षणता दंग्वन से ही मनुष्यां को इसी आती है। इसका ठीक ठाक कारण बतलाना कठिन है, तथापि इसक कारण का अनुसन्धान करना कोई दाप की बात नहीं ! हमारी भाषा में कौतुक और कोतूहल, दानां शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग होता है। संस्कृत साहित्य में भी ये दानों शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। कभी कौतुक शब्द के स्थान पर कोतू- हल शब्द और कभी कौतूहल शब्द की जगह पर कौतुक शब्द का प्रयाग होता है । अतएव यह बात अनुमान से जानी जाती है कि इन दोनों शब्दों में परस्पर मम्बन्ध है। कौतूहल का प्रधान भाग है नवान वस्तु देखने की लालसा, और कौतुक की भी प्रधान सामग्री नवीनता है । विरुद्ध, असङ्गत