पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३३८

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पञ्चभूत । ३२७ व्यवहार आदि के अभाव से उनकी अलसता, शिथिलता, स्वेच्छा- चारिता तथा आत्मसम्मान का अभाव प्रकाशित होता है, अतः यह बङ्गाली जाति की बर्बरता का चिद है। मैंने कहा-परन्तु इसके लिए हम लोगों का लजित न होना चाहिए। एक एसा राग होता है कि उसके कारण मनुष्य जो कुछ खाता है वह सब शकर हो जाता है. इसी प्रकार हमारे देश में भला- चुरा जो कुछ है वह सब एक अदभुत मानसिक विकार के कारण अहङ्कार के रूप में परिणत हो जाता है। अहङ्कार-वश हम लोग कहते हैं कि हमारी सभ्यता आध्यात्मिक है, खाने-पीने से उसका सम्बन्ध नहीं । अतएव बाहरी पदार्थों की ओर हम ध्यान ही नहीं दत, इन जड़ पदार्थों का कुछ भी मूल्य हम नहीं समझतं । वायु ने कहा--जिनका चित्त किसी उच्चतम विषय की ओर लग गया है वे यदि ऐसी छोटी छोटी बातों को भूल जायें या उधर से उदासीन रहे ना उनको इसके लिए काई दोष भी नहीं देता और उनका काई उपहास भी नहीं करता। हर एक समाज में इस प्रकार के मनुष्य बड़ी प्रतिष्ठा और ऊँची दृष्टि से देखे जाते हैं । प्राचीन भारतवर्ष में पढ़ने-पढ़ानेवाले ब्राह्मगा इसी श्रेणी के समझे जाते थे। वे क्षत्रिय या वैश्य के समान वेश-भूषा तथा काम-काज में लगे रहेंगे, ऐसा उनसे कोई भी आशा नहीं करता था । यारप में भी इस सम्प्रदाय के मनुष्य थे और वहाँ आज भी वर्तमान हैं । मध्य युग में उत्पन्न होनेवाले प्राचार्यों की बात छोड़ देने पर भी आधुनिक युग के न्यूटन आदि इसी श्रेणी के विद्वान योरप में उत्पन्न हुए थे जिनका वेश-भूषा की और विशेष ध्यान न था ! वे किसी के निमन्त्रण में