पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पञ्चभूत। नियम की प्रतिष्ठा राजपद पर होती है। पहले तो अनिच्छा से परन्तु पीछे अभ्याम के कारण उस पर मनुष्य की प्रान्तरिक मान- श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। व्योम ने कहा--परन्तु वह भक्ति यथार्थ भक्ति नहीं है, वह काम-चलाऊ भक्ति है। जब इस बात का निश्चय हो जाता है कि संमार के सभी कार्य नियमाधान है, कोई भी काम नियम का व्यतिक्रम करके नहीं होता, उस समय अगत्या मनुष्य को नियमों के अधीन होना पड़ता है। उस समय विज्ञान के विरुद्ध अनियम की महत्व नहीं दिया जाता । मन्त्र का डारा (गण्डा), महात्मा जी की विभूति, मन्त्र का जल आदि के उपयोग के ममय भी इनक्टिमिदी, मेग्नाटिम, हिनाटिज़म आदि विज्ञान के नकली मार्का दिखला कर अपने आप को भुलाना पड़ता है। हम लोग नियम की अपेक्षा अनियम को अच्छा समझते हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि म्वयं हम लोगों में भी एक स्थान पर नियम का अभाव है। हम लागाँ की इच्छा-शक्ति सब नियमों के बाहर है । वह स्वाधीन है। चाहे वह पराधीन भी हो, परन्तु हम लोग उसे स्वाधीन ही समझते हैं। उस आन्तर प्रकृति की स्वाधीनता के समान बाहरी प्रकृति में भी स्वाधीनता का चित्र दखन की इच्छा हम लोगों को स्वभावतः उत्पन्न होती है और उस इच्छा से हम लोगो को प्रानन्द भी होता है। एक इच्छा से अनेक इच्छाएँ उत्पन्न होती है। इच्छा के द्वारा जो फल हम लोगों को प्राप्त होते हैं वे बड़े ही प्रिय हैं। उन फलों के साथ ही माथ दूसरी अनेक इच्छाएँ भी उत्पन्न होती हैं। जब तक अनेक इच्छाएँ उत्पन्न न हो तब तक वे फल हम ।