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विचित्र प्रबन्ध।

होऊँगा, क्या कर सकता हूँ और क्या नहीं कर सकता, इसका भी कोई पता नहीं था। कार्य, भाव और अनुभाव में मेरी प्रकृति की कहाँ तक गति है, यह भी निर्दिष्ट न था। संसार भी अनिर्दिष्ट रहस्य से परिपूर्ण था। किन्तु इस समय अपने सम्बन्ध में सब संभावनाओं की सीमा पर आपहुँचा हूँ। उसी के साथ पृथिवी भी संकुचित हो गई है। इस समय पृथिवी मेरे आफ़िस, बैठक, दर-दालान आदि के ही रूप परिणत हो गई है। इसी भाव से पृथिवी इतनी परिचित होगई है कि मैं बिलकुल ही भूल गया हूँ कि ऐसे ऐसे कितने ही आफ़िस, बैठक, दर-दालान आदि इस पृथिवी पर रह चुके हैं, जिनका आज कोई चिह्न भी नहीं देख पड़ता। कितने ही अधेड़ अपने मामले-मुक़द्दमे की सलाह के घर को ही पृथिवी का ध्रुव-केन्द्रस्थल समझ कर मसनद-तकिये के सहारे बैठे थे। आज उनके नाम भी उनके शरीर की राख के साथ हवा में उड़ गये हैं। आज यदि कोई उनका पता लगाना भी चाहे तो पता लगना कठिन है। तो भी पृथिवी उसी वेग से सूर्य की प्रदक्षिणा कर रही है।

परन्तु आपाढ़ का मेघ हर साल जब आता है, तभी वह नये- पन के रस से भरा और पुरानेपन से पुञ्जीभूत होकर आता है। उसको हम नहीं भूलते, क्योंकि वह हम लोगों के व्यवहार के बाहर रहता है। हम लोगों के संकोच के साथ वह नहीं संकुचित होता। जब हम किसी मित्र के द्वारा ठगे गये हैं, शत्रु के द्वारा दुःखित किये गये हैं और किसी दुर्भाग्य के द्वारा बाधा को प्राप्त हुए हैं, तब न केवल हृदय मेँ ही दुःख की ज्वाला धधकी