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विचित्र प्रबन्ध।

हाथ में ले सकता है और इतना समय ही किसके पास है? दूसरी बात यह है कि दूसरों के लिए इतनी ग़रज़ किसे पड़ी है। यदि ग़रज़ होती भी तो वह दूसरों के लिए असह्य होती। निन्दक की की हुई निन्दा सही जा सकती है, क्योंकि उसकी निन्दकता की निन्दा करने का सुख हमारे हाथ में भी है। परन्तु विचारक के विचार को कौन सह सकता है?

सच बात तो यह है कि हम बहुत ही साधारण प्रमाण पाकर निन्दा करने लग जाते हैं। यदि निन्दा में यह लघुता न होती तो समाज की हड्डियाँ चूर हो जाती। कुशल इतनी ही है कि निन्दक की सम्मति सबसे बढ़ कर सम्मति नहीं हो सकती। निन्दित मनुष्य चाहे तो अपनी निन्दा का प्रतिवाद नहीं भी कर सकता है। यहाँ तक कि निन्दा के वचनों को हँस कर उड़ा देना ही बुद्धिमानी मानी जाती है। परन्तु निन्दा यदि विचारक की सम्मति होती तो सुबुद्धि को भी उसे दूर करने के लिए वकील-मुख़तारों को शरण लेनी पड़ती। जो लोग जानते हैं वे स्वीकार करेंगे कि वकील-मुख़तारों की शरण जाना हँसी-ठट्टा नहीं है। अतएव देख पड़ता है कि प्रयोजन के अनुसार निन्दा मेँ जितनी गुरुता होनी चाहिए वह भी है और जितनी लघुता रहनी चाहिए उतनी लघुता भी है।

हमारी पहली बात जिन पाठकों को अच्छी नहीं मालूम हुई थी वे इस समय अवश्य ही कहेंगे कि तुच्छ अनुमान के ऊपर हो अथवा निश्चित प्रमाण के ऊपर ही हो, यदि निन्दा ही करनी है तो वह व्यथा के साथ की जानी चाहिए; निन्दा करके उससे सुखी होने की इच्छा करना उचित नहीं।