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विचित्र प्रबन्ध।

लगता। न मालूम कितने दिनों से सन्ध्या के समय न तो उसमें दीपक जलाया जाता है और न दिन में कोई मनुष्य ही रहता है।

उस घर को खालने डर लगता है। अँधेरे में उसकी ओर जाने से रोएँ खड़े हो जाते हैं। जहाँ मनुष्य मनुष्य के साथ हँस कर बातें नहीं करता वहीं हम लोगों को डर लगता है। और जहाँ मनुष्य आपस में बातचीत करते हैं उस पवित्र स्थान मेँ भय का नाम भी नहीं रहता।

दोनों किवाड़े बन्द किये बीच में वह घर खड़ा है। किवाड़ों में कान लगा कर सुनने से मालूम पड़ता है कि भीतर हु-हू शब्द हो रहा है।

वह घर और कोई नहीं, विधवा है। यहाँ कोई एक आदमी रहता था। उसके चले जाने से यह बन्द पड़ा है। जब से वह गया तब से न तो यहाँ कोई आता है और न यहाँ से कोई जाता ही है। और किसी के लिए क्या कहा जाय, तब से यहाँ आते जैसे मौत को भी मौत आती है।

इस जगत् में निरन्तर गति-शील जीवन का प्रवाह मृत्यु को भी बहा ले जाता है, मृत मनुष्य कहीं पर एक क्षण भी नहीं टिकने पाता। इसी भय से समाधि-मन्दिर, कृपण की तरह, चोर के हाथ से मृत पुरुष की रक्षा करने के लिए, उसे पत्थर की चहारदीवारी के भीतर छिपा रखता है। वहाँ भय दिन-रात पहरा दिया करता है। लोग चोर कह कर मृत्यु की ही निन्दा करते हैंँ, पर जीवन भी मृत्यु की चोरी करके उसे अपने बड़े परिवार में बाँट देता है―यह बात कोई भी नहीं कहता।