पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८४
विचित्र प्रबन्ध।

रात पर रात आती और चली जाती हैं। पर उस घर में वही एक दिन बन्द है। वहाँ समय चारों दीवारों के बीच में बँधा हुआ पड़ा है। पुरानी बातें कहीं नहीं रहतीं, केवल इसी घर में हैँ।

इस घर के भीतर से बाहर का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। बाहर की बातें इस घर के भीतर नहीं पहुँचती, और न भीतर की साँस बाहर ही आती है। जगत् का प्रवाह इस घर के आसपास हो कर वह जाता है, पर उस प्रवाह का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। मानों संसार के अङ्ग से काट कर यह अलग कर दिया गया है।

यह घर अपने द्वार बन्द कर मार्ग की ओर देख रहा है। कौन कह सकता है कि जब पूर्णिमा के चन्द्रमा का प्रकाश आकर इस घर के द्वार पर धन्ना देकर पड़ता है तब इसके द्वार खुलना चाहते हैं कि नहीं! पास के घर में जब उत्सव की आनन्दध्वनि उठती है तब क्या इस घर का अन्धकार दूर होना नहीं चाहता? यह घर किस भाव से देखता है, किस भाव से सुनता है, सो हम कुछ नहीं समझ सकते।

इसी घर में एक दिन लड़के खेलते थे, आज वही कोलाहलमय दिन इस घर मेँ आधी रात के भीतर पड़कर रो रहा है। इस घर मेँ जो स्नेह-प्रेम की लीलाएँ हो चुकी हैं, आज वे इसी में बन्द पड़ी हैं। इस नि:स्तब्ध नीरव घर के बाहर खड़े होकर आज मैं उनके विलाप का सुन रहा हूँ। स्नेह और प्रेम बन्द करके रखने के लिए नहीं होते। वे मनुष्यों से अलग करके समाधि के भीतर गाड़कर रखने की चीज़ भी नहीं हैं। उनको बल-पूर्वक बाँधकर रक्खा जाय तो वे संसार के लिए रोते हैं।