ऐसी ही राय है। इसमे शिक्षा की जैसी मीमांसा की गई है वैसी आज तक किसी ने नहीं की। शारीरिक, मानसिक और नैतिक सब प्रकार की शिक्षाओं की, बड़ी ही योग्यता से, इसमे मीमांसा हुई है। स्पेन्सर ने विज्ञान-विद्या ही को सबसे अधिक उपयोगी और सबसे अधिक मूल्यवान शिक्षा ठहराया है। परन्तु, अफ़सोस, हिन्दुस्तान में इसी शिक्षा की सबसे अधिक नाक़दरी है।
१८८२ ईसवी में स्पेन्सर ने अमेरिका का प्रवास किया। जहाँ-जहाँ वह प्रकट रूप से गया वहाँ-वहाँ उसका बड़ा आदर हुआ। राजकीय और नैतिक शास्त्रों के उत्कर्ष के लिए फ्रान्स में एक प्रसिद्ध विद्या-पीठ है। उसकी एक शाखा तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखती है। उसमे विख्यात विद्वान् यमरसन की जगह पर कुछ काल तक वह निबन्धकार रहा। परन्तु वह बड़ा ही निस्पृह और स्वाधीनचेता था। योरप, और अमे- रिका के―विशेष करके इँगलेंड के―विश्वविद्यालयों ने उसे दर्शनशास्त्र की शिक्षा देने के लिए कितने ही ऊँचे-ऊँचे पद देने की इच्छा प्रकट की, परन्तु उसने कृतज्ञतापूर्वक उन्हें अस्वीकार कर दिया। स्वाधीन रहकर अपनी सारी उम्र उसने विद्या- व्यासङ्ग में खर्च कर दी और अपने अभूतपूर्व तत्त्वज्ञानपूर्ण ग्रन्थों से अपना नाम अमर करके संसार को अनन्त लाभ पहुँचाया।
स्पेन्सर की उम्र के पिछले पाँच-सात वर्ष अच्छे नहीं कटे। वह अकसर बीमार रहा करता था। कोई दस-