पृष्ठ:विदेशी विद्वान.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७
मुग्धानलाचार्य्य


भारत के पण्डितों को नालायक़ ठहराने के लायक़ समझे जायँ; तो भी वे संस्कृत के बड़े-बड़े छः-छः रुपये क़ीमत के व्याकरण लिख डाले!

आचार्य्य मुग्धानल के गुरुवर सर मानियर विलियम्स द्वारा सम्पादित, कालिदास के शकुन्तला नाटक की एक आवृत्ति है। उसमे―“किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते” इस पंक्ति का अर्थ गुरुवर ने किया हैं―“यदि चन्द्रमा के साथ संयोग होने के लिए विशाखा इतनी उत्सुक है तो शकुन्तला का चन्द्रवँशी दुष्यन्त के साथ सयोग की कामना करना कोई आश्चर्य्य की बात नहीं। शायद दुष्यन्त ने अपनी तुलना चन्द्रमा से और शकुन्तला की विशाखा से की है।”

तो क्या कालिदास ऐसे अहमक़ थे कि दुष्यन्त को चन्द्रमा बनाने के लिए, पुल्लिङ्ग “शशाङ्क” शब्द को स्त्रीलिङ्ग “शशाङ्क-लेखा” करना पड़ा? और क्या अकेली एक शकुन्तला को विशाखा बनाने के लिए “विशाखा” शब्द को द्वि-वचन में रखना पड़ा? साहब ने कालिदाम का काव्य पढ़ डाला और अपने सैकड़ों छात्रो को पढ़ा भी डाला; पर आपके ध्यान में यह न आया कि उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलङ्कारो में कालिदास ने लिङ्ग और वचन की एकता का बड़ा ख़याल रक्खा है। हाय हाय! कालिदास ने कोई बड़ा ही गुरुतर पाप किसी जन्म मे किया था; उसी का प्रायश्चित्त गुरुवर मानियर विलियम्स द्वारा आक्सफ़र्ड में उनसे कराया