भ्रमपूर्ण बातें लिखी गई हैं। उनमें से एक-आध बात की समा-
लोचना हम जून १९०७ की सरस्वती में कर भी चुके हैं।
धीरे-धीरे और बातों की भी समालोचना करने का विचार है।
आपकी पुस्तकों में कितनी ही भूलें हैं और बड़ी-बड़ी भूले हैं।
आपने “बृहदेवता” नाम की पुस्तक का जो अनुवाद अँगरेज़ी
में किया है उसमे श्रीधरजी ने, नमूने के तौर पर, दो-एक ऐसी-
ऐसी ग़लतियाँ बतलाई हैं जिन्हें देखकर मुग्धानलजी की संस्कृत-
सम्बन्धी अज्ञता किंवा अल्पज्ञता पर दया आती है।
हमारे विश्वविद्यालय के नायकों ने मुग्धानल का संस्कृत- व्याकरण, कालेज की प्रारम्भिक पाठ्य-पुस्तकों में, रक्खा है। उसी को पढ़कर भारतीय युवक सही-सही संस्कृत लिखना और बोलना सीखते हैं। आपका रचा हुआ संस्कृत-भाषेतिहास बी॰ ए॰ में पढ़ाया जाता है। उसका तेरहवाँ अध्याय दृश्य- काव्यों के विषय में है। उसमे आचार्य्य ने संस्कृत-नाटकों के दो-चार पद्यों का अनुवाद अँँगरेज़ी में दिया है। उसके विषय मे बहुत कुछ कहने को जगह है।
दुष्यन्त शकुन्तला को देखकर और उसकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर मन ही मन कहता है―
सरसिजमनुबिद्धँ शैवलेनापि रम्यँ
मलिनमपि हिमाँशार्लक्ष्मी लक्ष्मीं तनोति।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी
किमिव हि मधुराणाँ मण्डनँ नाकृतीनाम्?