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मुग्धानलाचार्य्य


को देखकर सम्भावना यही कहती है कि जिस समय दुष्यन्त ने “सरसिजमनुबिद्धँ” वाला श्लोक कहा था उसी समय शकु- न्तला की सुन्दरता का सबसे अधिक प्रभाव उसके हृदय पर हुआ होगा। अतएव यहाँ मुग्धानल साहब पर अरसिकता- दोष आये बिना नहीं रह सकता।

कण्व ने अपने एक शिष्य से कहा कि देख आ, कितनी रात है? उसने आश्रम-कुटीर के बाहर आकर देखा तो प्रात:- काल हो गया था। इस पर वह कहता है―

अन्तर्हि ते शशिनि सैव कुमुदूती में
दृष्टिं न नन्दयति संस्मरणीयशोभा।
इष्टप्रवासजनितान्यबलाजनस्य
दुःखानि नूनमतिमात्रसुदुःसहानि॥

इसका अर्थ राजा लक्ष्मणसिंह करते हैं―“चन्द्रमा के अस्त होने पर कुमुदिनी की शोभा केवल ध्यान में रह गई है। अर्थात् देखने में नहीं है, परन्तु सुध में है कि ऐसी थी। जिन नई स्त्रियों के पति परदेश हैं उनको वियोग का दुःख सहना बहुत कठिन है।” इसी भाव को उन्होंने पद्य मे इस प्रकार दिखाया है―

अस्ताचल पहुँच्यो शशि जाई। दई कुमुदिनी छबि बिसराई
दृगन देति अब आनँद नाहीं। आय रही छबि सुमरन माहीं
जिन तिरियन के प्रीतम प्यारे। देस छोड़ि परदेस सिधारे
तिनके दुख नहिं जात कहेहू। अवलन पै क्यों जात सहेहू