पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१३१

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विद्यापति । १२६ सखी। २५३ काजर रुचिहर रयनि विशाला । तसु पर अभिसार करु व्रजबाला ॥ ३ ॥ | घर सञो निकसय जइसन चोर । निशवद पद गति चललिहु थोर ॥ ४ ॥ उनमत चित अति आरति बियार । गरु नितम्ब नव यौवन भारे ॥ ६ ॥ कमलिनि माझ खीनिउच कुचजोर । धाधसे चलु कत भावे विभोर ॥ ८ ॥ रङ्गिन सङ्गिनि नव नव जोरा । नव अनुरागिनि नव रस भौरा ॥१०॥ | अङ्गक अभरण वासय् भार नेपुर किङ्किनि तेजल हार ॥१२॥ लीला कमल उपेखलि रामा । मन्थर गति चलु धरि सखि शामा ॥१४॥ । जतनहि निसरु नगर दुरन्ता । शेखर अभरण भेल वहन्ता ॥१६॥ राधा । २५४ लहु कय कहलह गुरुतर भार । दुतर रजनि दूर अभिसार ॥ २ ॥ घाट भुअङ्गम उपर पानि । दुहकुल अपजसअङ्गिरल जानि ॥ ४ ॥ पर निधि लय साहस तोर । केजान कोनगति करवए मोर ॥ ६ ॥ तेरे बोले दुती तेजल निज गैह ।जीव सजो तौलल गरुअ सिनेह ॥ ८ ॥ समि दसाहे बोलव की तोहि । अमिय बोलि बिख देलहे मोहि ॥१०॥ 1।।