पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४८

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१४२ विद्यापति ।

राधा । २८० कैतुक चललि भवनके सजन गे सङ्ग दश चौदिश नारी । । बिच बिच शोभित सुन्दर सजनि गे जनि घर मिलत मुरारी ॥ २ ॥ लइ अभरण कए षोड़श सजनि गे पहिर उतिम रङ्ग चीर । देखि सकल मन उपजल सजनि गे मुनिहुक चित नहि थीर ॥ ४ ॥ नील वसन तन घेरलि सजनि गे शिर लेल घोघट सारी । लग लग पहुके चलते सजनि गै सँकुचल अङ्कम नारी ॥ ६ ॥ सखि सब देल भवनके सजनि गे घुरि आइल सभ नारी ।। कर धए लेल पहु लगकह सजनि गे हेरइ बसन उघारि ॥ ८ ॥ भय वर सन्मुख बोलइ सजनि में करे लागल सबिलासे । नव रस रीति पिरीति भेल सजनि गे दुहु मन परम हुलासे ॥१०॥ विद्यापति कवि गाग्रोल सजनि गे इ थिक नव रस रीति । बयस युगल समुचित थिक सजनि गे दुहु मन परम पिरीति ॥१३॥ राधा । २८१ घर गुरुजन पुर परिजन जाग । काहकलोचन निन्दोन लाग ॥ २ ॥ कोन पर जुगुतिगमन होएत मोर । तम पिवि बाढल चान्द उजोर ॥ ४ ॥ साहसे साहिश प्रेम भंडार । अवह न अवय करम चन्दार ॥ ७ ॥ दृहु अनुमान कयल विहि जोर । पॉखि न देलक विधाता भोर ॥६॥ भनइ विद्यापति जदि मन जाग । बडे पुने पवित्र नव अनुराग ॥१०॥ =