पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । .. ... सखः । ૨૪ प्रथम जङवन नव गरुअ मनोभव छोटि मधुमास रजनी । जाग गुरुजन गेहा राखए चाह नेहा संशअ पड़ल सजनी ॥२॥ नलनी दुल निर चित न रहए यिर तत घर तत हो बहारे । विहि मोर बड़ मन्दा उगि जनु जा चन्दा सुनि उठि गगन निहारे ॥४॥ पथ पृथुक सङ्का पय पय धय पङ्का कि करति ओनवि तरुनी ।। चलए चाह धसि पुनु पड़ खसि खसि जालक छेकलि हरिनी ॥६॥ साए साए कमन वैदन तसु जाने । निकुञ्ज वन जे हरि जाइति कोने पर अनुखने हुन पचवाने ॥८॥ विद्यापति भने कि करत गुरु जन नीद निरपन लागी । वअनि नीर भरि धीरे झपावए रयनि गमावए जागि ॥१०॥ __ _ । ।