पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

१४८ विद्यापति । राधा ।। | २६.० गगने अब घन मेह दारुण सघन दामिनि झलकइ । कुलिश पातन शबद झन झन पवन खरतर बलगइ ॥ २ ॥ सजनि आजु दुरदिन भेल । कन्त हमरि नितान्त अगुसार सङ्केत कुञ्जहि गेल ॥ ४ ॥ तरल जलधर बरिखे झरझर गरजे घन घन घोर । साम नागर एकले कैसने पन्थ हेरइ सौर ॥ ६ ॥ सुमरि मझु तनु अवश भैल जनि अथिर थर थर कॅपि । इ मझु गुरुजन नयन दारुण घोर तिमिरहि झॉप ॥ ८॥ तोरिते चल अब किये बिचारह जीवन मझु अगुसार । कविशेखर वचने अभिसार किये से बिाघिन विथोर ॥१०॥ राधा । ૨૧ काजरे राङ्गलि सने जाने राति । अइसना वाहर होइते साति ॥ ३ ॥ तडितहु तेजलि मित अन्धकार । असा संशय पर अभिसार ॥ ३ ॥ भलन कएल मने देल बिसवास । निकटजोएनसत कान्हकबास ।। १ जलद भुअङ्गम दुहु भेल सङ्ग। निचल निशाचर कर रसभङ्ग ॥ ८ ॥ मन अवगाहए मनमथ रोस । जिव देले नहि होएत भरीस ॥१०॥ अगमन गमन बुझए मतिमान । विद्यापति कवि एहू रस जाना॥१२॥